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________________ * 4 . . श्रीबृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी भाषांतर . विशेषार्थ-वह इस प्रकार है रत्नप्रभा के तेरहों प्रतर की उत्कृष्ट स्थिति बतायी, अब दूसरी शर्कराप्रभा के प्रतरों की उत्कृष्ट स्थिति निकालने की होने से विश्लेष करने के लिए शर्कराप्रभाकी उत्कृष्ट तीन सागरोपम की स्थिति में से पहली रत्नप्रभा की उत्कृष्ट एक सागरोपम की स्थिति का विश्लेष (कमी) करने से शेष दो सागरोपम रहते हैं / इन दोनों सागरोपम को शर्कराप्रभा के ग्यारह प्रतरों में बाँटने के लिए एक सागरोपम के ग्यारह हिस्से करते हुए दो सागरोपम के बाईस हिस्से बनते हैं। अब इन सभी को ग्यारह प्रतर में बाँटने से दो-दो भाग प्रत्येक प्रतर में आते हैं। अब इप्ट प्रथम प्रतर पर स्थिति निकालने की होने से उन्हीं दो भागों को एक प्रतर से गुनने से फिरसे दो ही भाग आते हैं, उसे ऊपर की रत्नप्रभा के तेरहवें प्रतर की एक सागरोपम की उत्कृष्ट स्थिति के साथ जोडने से एक सागरोपम तथा एक सागरोपम के ग्यारह में से दो भाग (1 सा. ३०)का उत्कृष्ट आयुष्य शर्करा प्रभा के प्रथम प्रतर पर आयेगा / इसी प्रकार दूसरे प्रतर के साथ गुनने से 242= आयेगा और उस में एक सागरोपम मिलाने से 11 सागरोपम द्वितीय प्रतर की उत्कृष्ट स्थिति है / इसी प्रकार तीसरे प्रतर पर दो भाग बढाने से (166) 1 सागरोपम , भाग, चौथे पर 16 सा., पाँचवें पर 116, छठवें पर 2 सा. , [क्यों कि ग्यारह भाग पूर्ण होते ही एक सागरोपम पूर्ण होता है / सातवें पर 2, आठवें पर 2, नौवें पर 2%, दसवें पर 26, और ग्यारहवें पर 231 अर्थात् बराबर तीन सागरोपम की उत्कृष्ट स्थिति (शर्कराप्रभा के ग्यारहवें प्रतर पर) आयी। इसी प्रकार अन्य पृथ्वियों के लिए भी इसी कारण की सहायता से सोचे-समझें / अधिक जानकारी पाने के लिए यन्त्र को देखें / इसी प्रकार अपनी अपनी आयुप्यस्थिति तक, नारक जीव हमेशा अविरत दुःखपीडाओं की अनूभूति करते हैं / क्षणमात्र के लिए भी शाता का अनुभव वे करते 355 अच्छिनिमीलणभित्तं, नत्थि सुहं दुक्खमेव अणुबद्धं / नरए नेरइआणं, अहोनिसिं पञ्चमाणाणं // [जीवा०] 326 यदि अपने पूर्वभव में अग्निस्नान या शरीरछेदन की मध्यम कोटि के संक्लिष्ट परिणामरूप मरा हुआ जीव नरक में उत्पन्न होता है उसी समय पर ही उसे शाता की अनुभूति होती है अथवा कोई मित्रदेव आकर शाता का अनुभव करा दें तब, अथवा कल्याणक आदि प्रसंग पर कुछ ही समय थोडी सी शाता मिल भी जाती है। ऐसे कोई क्षणिक प्रसंग के बिना सदा अशाता का ही अनुभव करते हैं। उववाएण व सायं, नेरइओ देवकम्मुणा वावि / अज्झवसानिमित्तं, अहवा कम्माणुभावेणं // 1 // [श्रीचन्द्रिया टीका]
SR No.004267
Book TitleSangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Original Sutra AuthorChandrasuri
AuthorYashodevsuri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1984
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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