SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 383
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ शेष तीन निकायमें अवधिक्षेत्रमान ] गाथा 195-199 [383 बलिन्द्रादिक असुर असंख्य-असंख्य योजन अधिक-अधिकरूप देख सकते हैं / इस प्रकार ज्यों ज्यों आयुष्यकी वृद्धि होती जाती है त्यों त्यों असंख्य योजनकी वृद्धि भी समझ लें। उत्कृष्ट उर्ध्वक्षेत्र-अपने अवधिके बलसे ही चमरेन्द्र उत्पन्न होते ही सौधर्मेन्द्रको देख सकता था, अतः भवनपति सौधर्मकल्प यावत् ऊपर देख सकते हैं। व्यन्तर और ज्योतिषी उत्कृष्टसे अधिकरूप संख्याता योजन तक ही ऊपर (ऊँचा) देख सकते हैं / उत्कृष्ट अधःक्षेत्र - सभी भवनपति असंख्य योजन (तीसरे नरकान्त ) तक और व्यन्तर-ज्योतिषी संख्याता योजन तक देख सकते हैं। जघन्यावधिक्षेत्र-भवनपतियों में प्रथम निकायका, उर्ध्वादि तीनों बाजुषाला जघन्य अवधिक्षेत्र विषय असंख्य योजन, शेष नौ निकायका संख्य योजन, इनमें भी जघन्य दस हजार सालकी आयुवालोंका निश्चे 25 योजन, व्यन्तरका संख्य योजन, इनमें भी दस हजार वर्षायुषो व्यन्तरोंका 25 योजन, ज्योतिषीका संख्य योजनका अर्थात् संख्याता द्वीप समुद्रका भी लघुके बजाय बड़ा संख्याता इससे अधिक द्वीप-समुद्रका जाने / [ 198 ] अवधिक्षेत्रका संस्थानाकार-नारकीका अवधिक्षेत्राकार तिरेंदाकार (तिरौंदा, तरणु) होता है। यह काष्ठके समूहसे बनाया हुआ सीधा-सरल तैरनेका त्रिकोण (त्रिभुज ) आकारकाजलयान साधन होता है। . भवनपतिका आकार 'पल्याकार' होता है, यह लाटदेशमें उपयोगी धान्य नापनेका प्याला-साधन विशेष है, जो ऊँचा होने के साथ साथ नीचेसे ३४८चौड़ाईवाला तथा ऊपरके भागसे कुछ सँकरा (संकीर्ण) होता है। व्यन्तरदेवका अवधिक्षेत्राकार पटहाकार होता है। यह एक प्रकारका लम्बा ढोल होता है जो ऊपर-नीचे दोनों भागों पर समान प्रमाणयुक्त और दोनों ओर गोल चमड़ोंसे जड़ा हुआ होता है जिसे देशी वाद्य बजानेवाले बजाते हैं वह / - ज्योतिष्कका अवधि३४४ क्षेत्राकार झल्लाकारमें (झल्लाकार ) अर्थात् दोनों ओर विस्तीर्ण वलयाकार चमड़ोंसे सुशोभित, बीचमेंसे सँकरा, जिसे 'ढक्का के उपनामसे पहचाना जाता है वैसा होता है। अतः यहाँ पाठशालामें उपयोगी कांस्यकी पतली घंटा (झालर) न समझकर, सँपेरे-मदारी जो डमरू या डुगडुगी बजाते है, वैसा ही समझे। कल्पोपपन्न (बारह देवलोक )का अवधिक्षेत्राकार मृदंगाकार होता हैं, जो एक देशी. 348. यह कथन 500 गाथाएँ युक्त संग्रहणीके आधार पर है, शेष अन्य स्थानोंमें यह प्याला नीचेसे विस्तीर्ण तथा ऊपरसे संकीर्ण होता है ऐसा लिखा हुआ है। 349. यहाँ कांस्यकी झालर न समझकर, 'डमरूकाकार' समझना अधिक योग्य है।
SR No.004267
Book TitleSangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Original Sutra AuthorChandrasuri
AuthorYashodevsuri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1984
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy