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________________ 372 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [ गाथा-१८८ 3 1. ऋजु (सरल) और 2. वक्रा (कुटिल)। ये गतियाँ एक भवसे लेकर दूसरे भवके बीच आती होनेसे इसे 'अन्तराल' गति भी कहते हैं / 1. ऋजुगति-यह गति एक ही समयकी है, इसका दूसरा नाम 'अविग्रहा'3३७ भी है। इस गतिसे परभवमें जाता जीव मृत्यु पानेके साथ ही सीधी गतिसे उत्पत्ति स्थानमें सीधा एक ही समयमें उत्पन्न हो जाता है। इसे एकसे अधिक समय लगता ही नहीं है। इसका कारण यह भी है कि-संसारी जीवका मृत्यु स्थानका जो श्रेणिप्रदेश होता है उसकी समश्रेणिपर ही (छः दिशाओंमेंसे किसी भी एक दिशाकी) उत्पत्ति प्रदेश हो तो सूक्ष्म शरीरधारी जीव वक्रगतिसे न जाता हुआ सीधा ही अपने जन्म स्थान पर पहुँचता होनेसे अधिक समयका अवकाश रहता ही नहीं है। 2. वक्रागति-यह गति एकसे अधिक समयवाली है। अतः एकविग्रहा- दो समयवाली, द्विविग्रहा-तीन समयवाली, त्रिविग्रहा–चार समयवाली और चतुर्विग्रहा३३८-पाँच समयवाली; इस प्रकार वह चार प्रकारी है और इस गतिका 'विग्रहगति '338 ऐसा नामांतर भी हुआ है। वक्रगति ऐसा नामकरण क्यों किया गया है ? तो इसका समाधान इस प्रकार है कि-जीव एक शरीरको छोड़कर जब किसी दूसरे शरीरको ग्रहण करनेके लिए परभवकी ओर प्रस्थान (गति ) करता है, तब स्वोपार्जित कर्मवशकारण उसे कुटिल वक्रगतिकी ओर जाना पड़ता है अर्थात् उसके द्वारा वहाँ उत्पत्ति स्थान पर पहुँचता है। .. ___ इस तरह संसारी जीवोंका परलोकगमन ऋजु (सरल) और वक्रा (कुटिल)-इन दो गतियोंसे होता है। ऋजुकी बात तो ऊपर बतायी गई है / लेकिन वक्रगमन क्यों करना पड़ता है ? तो इसके समाधानमें यह बताते हैं कि-वक्रगतिसे जानेवाले जीवका मृत्युस्थान और उसका उत्पत्तिस्थान (ऋजुकी तरह ) दोनों जब समश्रेणिपर होते नहीं हैं, लेकिन वक्रगतिरूप विश्रेणिपर होते है, इसी कारण जीव सीधा या श्रेणीभंग करके तिरछा भी जा सकता नहीं है। यह एक अटल नियम है, अतः इसे प्रथम सीधा जाकर बादमें मोड़ लेकर ही उत्पत्तिकी श्रेणिपर पहुंचकर उत्पत्ति प्रदेश पर पहुंचना पड़ता है। इन्हीं मोड़को धारण करने का नाम ही वक्र गति है। ऋजुगति किसे प्राप्त होती है ?-कर्ममुक्त होकर मोक्ष पर जाते सभी जीवों में तथा संसारी जीवोंमें ऋजुगति मिलती है। इसमें मुक्तात्माका मुक्तिगमन (मोक्षगमन ) हमेशा 337. तत्त्वार्थभाष्यमें यह नाम है। 338. तत्त्वार्थभाष्यमें यह गति ही नहीं है / 339. विग्रहोवक्रितमवग्रहः श्रेण्यन्तरसंक्रान्ति /
SR No.004267
Book TitleSangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Original Sutra AuthorChandrasuri
AuthorYashodevsuri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1984
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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