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________________ 346 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [गाथा 168 लेकिन ये शुक्र पुद्गल वैक्रिय होनेसे वैक्रिय योनिमें जाते ही गर्भाधानका 17 कारणरूप बनते नहीं हैं, परन्तु इससे देवीके रूप-लावण्य-सौंदर्य-सौभाग्यादि गुणोंकी वृद्धि होती है। ___ सनत्कुमार-माहेन्द्र कल्पके देव स्पर्शप्रविचारक अर्थात् उन्हें तथाविध कर्मके उदयसे / कायसेवन करनेकी इच्छा होती ही नहीं है, परन्तु उनकी विषय-वासना जागृत होते ही वे विषयासक्त बनते हैं, तब नीचेके दो कल्पोंकी देवियाँ उनकी इच्छाको तथा इसे अपने प्रतिका आदरभाव समझकर उनके पास पहुँच जाती हैं और तुरन्त ही वे इन देवियोंके हस्त, भुजा, वक्षःस्थल, जंघा, बाहु, कपोल, वदन, चुम्बन इत्यादि गात्रके संस्पर्श मात्रसे ही विषयसुखका आनन्द पाते हैं। यहाँ शंका होती है कि-कायप्रविचारमें तो परस्पर शुक्र पुद्गल-संक्रमण तो परस्पर आलिंगनपूर्वक सेवन करनेसे बनता है; परन्तु स्पर्श-रूप-शब्द-मनःप्रविचारमें शुक्र पुद्गल -संक्रमण होता है या नहीं ? इस शंकाके समाधानमें यह बतानेका है कि वह क्रिया अवश्य होती है, स्पर्शादि विषयमें वैक्रिय शुक्र पुद्गलोंका संक्रमण दिव्य प्रभावसे जरूर होता है। दूसरी यह शंका भी होती है कि-सौधर्म और ईशान देवोंकी अपने इख्तियारकी देवांगनाएँ क्या उनसे उपरि कल्पमें स्थित देवोंसे स्पर्शादि द्वारा मैथुनाभि लाषको तृप्त करने के लिए जा सकती हैं क्या ? तो इस शंकाके सम्बन्धमें यह कहना है किअपने-अपने इख्तियारकी देवांगनाएँ वहाँ जाती नहीं हैं। क्योंकि उन्हें परिगृहीता मानी जाती है। लेकिन मनुष्यलोककी गणिका समान देवियाँ प्रारम्भके दो देवलोकमें भी होती ही हैं। इन्हें अपरिगृहीता कहा जाता है और ये देवियाँ मैथुनाभिलाषी देवोंकी विषयवासनाको ज्ञानसे जानकर अपनी ओर आकर्षित बने हुए देवोंकी ओर दौड़ जाती हैं। इसकी विशेष व्याख्या 172 से 175 तककी गाथाओंमें की जायेगी। ब्रह्म-लांतक कल्पके देव रुपप्रविचारक हैं, अर्थात् उन्हें विषयकी इच्छा होते ही देवियाँ अपने शृंगारयुक्त रूपको उत्तर वैक्रिय शरीर रूपमें परिवर्तित करके उन अभिलाषी देवोंके पास आती हैं तब ये देव उन देवियोंके साथ परस्पर क्रीडायुक्त उनके बदन तथा उनके उदरादि अंगोपांगका अनिमेष रसपान (निरीक्षण) करते, परस्पर प्रेम दिखाते हैं, साथ 317. देवोंका शरीर वैक्रिय होनेसे देव-देवीके सम्बन्धमें गर्भका प्रसंग आता ही नहीं है। किसी जन्मान्तरीय रागादिके कारण किसी मानुषीके साथ देवका सम्बन्ध हो तो उसी संबन्ध मात्रसे गर्भाधान रहनेका संभव नहीं है क्योंकि वैक्रिय शरीरमें शुक्रपुद्गलोंका अभाव होता है। किसी दिव्य शक्ति-विशेषसे औदारिक जातिके शुक्रपुद्गलोंका प्रवेश हो और गर्भ रहे यह अन्य बात है।
SR No.004267
Book TitleSangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Original Sutra AuthorChandrasuri
AuthorYashodevsuri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1984
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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