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________________ देवोंके प्रविचार संबंधी विचारणा ] गाथा-१६८ [ 345 मनसे विषयसुखका अनुभव करते हैं और उनके बादके उपरि सर्व कल्पदेव अप्रविचारी (अविषयी) हैं // 168 // विशेषार्थ-विषयसेवन पाँच प्रकारसे होता है। संपूर्ण काय (तन ) सेवी, स्पर्श सेवी, रूप सेवी, शब्द सेवी और कुछ लोग मनःसेवी भी होते हैं / सभी देव विषयका सेवन करते हैं या विषयासक्त होते हैं ऐसा नहीं है। कितनेक देव अविषयी भी हैं। इनमें भी ऊपर बताये गए एक या एकसे अधिक प्रकारके सेवन करनेवाले भी होते हैं। मोहदशाका संक्लेष ज्यों ज्यों कम, त्यों त्यों तद्विषयक इच्छामें कमी भी होती है। मोहदशामें जितनी प्रबल उपशान्त स्थिति होती है उतनी ही चित्तमें स्वस्थता और शांति भी होती है। अतः वहाँ भोगेच्छाका अत्यन्त अभाव होता है, यह बात उपरोक्त गाथामें बतायी गई है। उसका विशेष अर्थ निम्नानुसार है। __ यहाँ 'दो कप्प' यह शब्द मर्यादा सूचक होनेसे भवनपति, व्यन्तर, ज्योतिषी और सौधर्म-ईशान कल्प तकके सभी देव कायप्रविचारक हैं। प्रविचारक अर्थात् विषय सेवना अथवा कि संक्लिष्ट पुरुषवेद उदयकर्मके प्रभावसे मनुष्योंकी तरह इन्द्रादिक देव मैथुन सुखमें प्रकर्ष ( उत्तमता, अधिक ) रूपसे लीन होकर सर्व अंगसे-कायाके स्पर्शसे उत्पन्न होनेवाली सुख-प्रीतिको पाते हैं। ज्यों कोई पुरुष स्त्रीके साथ सर्वागसे विषयसुख भोगता है, उसी प्रकार प्रस्तुत देव भी कायसेवी होनेसे उत्तमोत्तम शृंगार चेष्टाओंको धारण करनेवाली देवियों के साथ भोग सुखमें लीन बनते हैं। ये देव अपने मनमें जब भी जिन जिन देवियोंके साथ उपभोगकी इच्छा करते हैं कि तुरन्त ही वे देवियाँ उनकी इच्छाको सुनकर या ज्ञानके द्वारा या तथाविध ( उस प्रकारका ) प्रेम पुद्गलके परस्पर संक्रमणके माध्यमसे जानकर, उन्हीं देवोंके विषयसुखको तृप्त करनेके लिए दिव्य तथा उदार शृंगारयुक्त ऐसे मनोज्ञ प्रतिक्षण प्रेमोद्भव करनेवाले, अनेक उत्तरवैक्रिय आदि रूपोंको विकुर्वणकर (इच्छानुसार रूप धारण करके) देवोंके समीप आती हैं। उसी समय देव भी इच्छानुसार रूपोंको धारण करके तुरन्त ही अप्सराओंके साथ सर्वालंकारविभूषित उत्तम सभागृहमें दिव्य शय्या पर संक्लिष्ट पुरुषवेदके उदयसे मनुष्यकी तरह सर्वांगयुक्त कायक्लेश-दमनपूर्वक प्रत्यंगसे आलिंगन करके मैथुनसेवन करते हैं। उसी समय देवीके शरीरके पुद्गल देव शरीरका स्पर्श करते हैं तथा देवके शरीरके पुद्गल देवीका स्पर्श करते हैं। इस तरह परस्पर संक्रमण करते करते वे मनुष्यके विषय सुखसे अधिक अनन्तगुण सुखानन्दको प्राप्त करते हैं जिससे वे तृप्त होते हैं अर्थात् कामाभिलाषसे निवृत्त बनते हैं क्योंकि मनुष्यकी तरह देवका भी वैक्रियशरीरी देवीकी योनिमें वैक्रियस्वरूप शुक्र (वीर्य) पुद्गलोंका संचार होता है, अतः उनकी तत्काल वेदोपशांति भी हो जाती हैं। बृ. सं. 44
SR No.004267
Book TitleSangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Original Sutra AuthorChandrasuri
AuthorYashodevsuri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1984
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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