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________________ चौदह राजलोककी गिनती, मर्यादास्थान तथा स्वरूप ], गाथा-१३७ [ 307 गाथार्थ-अधोभागमें सातों नरक पृथ्वी एक एक राज प्रमाण समझें, जिससे सात नरक पूरे होते सात राज होते हैं। इसे स्थूल परिभाषा समझना। और वहाँसे लेकर सौधर्म युगलमें आठवाँ राज, माहेन्द्रमें नौवाँ राज, लान्तके दस, सहस्रारे ग्यारह, आरण-अच्युतान्ते बारह, नवग्रैवेयकान्ते तेरह और वहाँसे लोकान्ते चौदहवाँ राज पूर्ण होता है / ‘रज्जुइक्विक्क' यह पद देहलीदीपक न्यायकी भाँति दोनों तरफ घटानेका है। // 137 // विशेषार्थ यह लोक चौदह राज प्रमाण है। उसमें प्रथम सातवें नरकके अन्तिम तलवेसे ( अधो लोकान्तसे ) लेकर, उसी सातवें नरकके ऊपरके तलवे तक पहुँचते एक रज्जु प्रमाण बराबर होता है। वहाँसे लेकर छठी नारकीके उर्ध्व छोर पर पहुँचते दो रज्जु, पाँचवींके अन्तमें तीन रज्जु, चौथीके अन्तमें चार रज्जु, तीसरी नारकीके अन्तमें पाँच, दूसरीके अन्तमें छः और पहली नारकीके उपरितन तलवे पर पहुँचते सात रज्जु होते हैं, ( इसे स्थूल परिभाषा समझे ) वहाँसे आगे चलकर तिर्यक्लोक पार करके सौधर्म ईशान कल्पमें ऊपरितन प्रतर पर जाते आठ, सनत्कुमार--माहेन्द्र युगलमें अन्तिम प्रतर पर जाते नौ, ब्रह्म कल्पको पार करके लांतक कल्पान्त पर दस, महाशुक्र कल्प पार करके सहस्रार देवलोकके अन्तमें ग्यारह, आरण-अच्युतान्त पर बारह, ग्रैवेयकान्तमें २८७तेरह, अनुत्तरको पार करके सिद्धस्थानान्त पर पहुँचते चौदह रज्जु सम्पूर्ण होते हैं। वे पूर्ण होते ही लोक पूर्ण हुआ और उसके बाद आलोककी शुरूआत होती है। इस प्रकार धर्मानारकीके ऊपरके भाग पर सात और निम्न भाग पर सात यों कुल मिलकर चौदह राज बराबर होता है। अधो, तिर्यक् और उर्ध्व-इन तीनों स्थलोंको ‘लोक' शब्द लगाकर बोला जाता है / अधो भागमें अधिक सात राज पृथ्वी है और उर्ध्व भागमें कुछ न्यून सात राज * पृथ्वी है। दोनों मिलकर चौदह राजलोक सम्पूर्ण होता है। यह लोक 'वैशाख' संस्थानमें अर्थात् दोनों हाथोंको कमर पर रखकर, दोनों पैर चौड़ा . 287. यह अभिप्राय आ. नियुक्ति-चूर्णि तथा जिनभद्रगणी क्षमाश्रमणजी कृत संग्रहणीका है, परन्तु श्री योगशास्त्रके अभिप्रायसे तो समभूतल रुचकसे सौधर्मान्तमें देढ रज्जु, माहेन्द्रान्ते ढाई, ब्रह्मान्ते तीन, सहस्रारमें चार, अच्युतान्तमें पांच, ग्रैवेयकान्तमें छः और लोकान्तमें सात ऐसा ही अभिप्राय लोकनालिकाका समझाता है / साथ ही श्री भगवतीजी आदिमें तो धर्मा रत्नप्रभा पृथ्वीके नीचे असंख्य योजन पर लोकमध्य है ऐसा कहा है। उसके आधार पर तो वहाँ सात राज पूर्ण होते ही वहाँसे उर्धकी गिनती शुरू होती है। इस लोकके विषयमें तीनों लोकका मध्य भागका निर्णय करनेमें कुछ परामर्श (चर्चा-विचारणा ) करना - जरूरी है।
SR No.004267
Book TitleSangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Original Sutra AuthorChandrasuri
AuthorYashodevsuri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1984
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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