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________________ 294 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [गाथा 114-116 सहस्रार ये तीनों कल्प प्रथम घनोदधि और फिर 281 घनवात इन दोनोंके आधार पर हैं, और बादके आनतादिसे लेकर अनुत्तर तकके समग्र कल्प केवल एक 'आकाशाधार' पर प्रतिष्टित है। वहाँ नहीं है घनोदधि या घनवात (या तनवात) / [113.] ___ अवतरण-अब प्रत्येक देवलोकमें विमानोंका मोटापन तथा उनकी ऊँचाईका प्रमाण बताते हैं। सत्तावीस सयाई, पुढवीपिंडो विमाणउच्चत्तं / पंचसया कप्पदुगे, पढमे तत्तो य इक्विकं // 114 / / हायइ पुढवीसु सयं, वड्ढइ भवणेसु दु-दु-दुकप्पेसु / चउगे नवगे पणगे, तहेव आऽणुत्तरेसु भवे / / 115 / / .. इगवीससया पुढवी, विमाणमिक्कारसेव य सयाई / . बत्तीस जोयण सया, मिलिया सध्वत्थ नायब्वा / / 116 / / गाथार्थ—पहले दो देवलोकमें विमानके मूलप्रासादके शिखर तकका पिंडप्रमाण सताइस सौ योजनका होता है। और विमानकी ऊँचाई पांचसौ योजन होती है। बादके दो कल्पमें-पुनः दो कल्पमें-पुनः दो कल्पमें-फिर चार देवलोकमें-नववेयक और पांच अनुत्तरमें जाने पर तीसरे देवलोकसे ही लेकर पूर्व पूर्व कल्पके पृथ्वीपिंडमेंसे सौ सौ 281. घनोदधिके आधार पर घनवात अथवा घनवातके आधार पर घनोदधि किस तरह रह सकता है, इसके लिए एक दृष्टांत देते हैं, उसे सोचकर-ध्यानमें लेकर मनको निःशंक बनाएँ / ___ कोई एक आदमी चमडेके मसकको पवन भरकर फुलावे, फिर तुरन्त ही डोरीकी मजबूत गांठसे मसकका मुख ऊपरसे बांध दे, उस गेंद जैसे फूले हुए मसकके मध्यभागको पुनः डोरीकी अंटी मारकर मजबूत गांठसे बांध दे, इस तरह होनेसे अब मसकमें रहा वायु दो विभागमें बँट गया, इससे उसका आकार डमरु जैसा बन गया / इस तरह करनेके बाद प्रथम मसकका जो मुख बांधा था, उसे छोड दे जिससे बिचकी गांठके ऊपरके भागका सारा पवन निकल जाए। अब उस पवनके निकल जानेसे खाली पड़े मसकके अर्ध भागको पानीसे पुनः भर ले, भरनेके बाद उसका मुख पुनः बांध ले। अब ऊपरका भाग पानी युक्त और नीचेका भाग वायु युक्त रहा / अब मसकके बीच जो गांठ बांधी है उसे भी अब छोड डाले, इससे नीचे वायु और उसके आधार पर पानी रहेगा। नीचेके वायुमें जल बिलकुल प्रवेश नहीं करेगा। पुनः औंधा करने पर जलाधार पर वायु सोच सकते। अथवा कोई एक पुरुष चमडेके मसकको पवन भरकर फुलावे / फिर अपनी कटिसे बांधकर अथाह जलमें प्रवेश करे तो भी वह पानीके ऊपरके भागमें ही रह सकता है। तो फिर ऐसी शाश्वती वस्तुएँ तथाविध जगत्स्वभावसे रहे उसमें सोचना क्या हो ?
SR No.004267
Book TitleSangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Original Sutra AuthorChandrasuri
AuthorYashodevsuri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1984
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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