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________________ 284 ] वृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [गाथा-१०८ 109 भू. 12 प्र० सं० प्र०सं० लांतककल्पमें पहुँचते-३१४४=१२४-२४९ लांतककल्पमें -5-1%D444%3D16-125 . 124 125 मु० शुक्रकल्पमें " -36x4=144-249 / | शुक्रकल्पमें -4-1=344=12-105 144 105 मु. सहस्त्रारकल्पमें" -40x4=160-249 सहस्रारकल्पमें " -4-1=345=12-89 160 . 12 089, आनत-प्राणते " -4444=176-249 | आ० प्राणते " -4-1=344=12-73 176 073, आरण-अच्युते " -4844=192-249 | आ० अच्युते " -4-1=3x4=12-57 .. 192 057" अधस्तन प्रै० त्रिके" -5244208-249 अ० प्रै त्रिके " -3-1-2448-41 208 041" 33. मध्यम 30 त्रिके" -5544220-249 मा त्रिके " -3-1=244-8-29 220 12 029" 9. उपरितन 30 त्रिके" -5844232-249 | उ० 30 त्रिके " -3-1=244-8-17 232 017" अनुत्तरकल्पमें " -6144-244-249 | अनुत्तरकल्पमें प्रतर संख्या एक ही होनेसे 244 भूमि सम्भवित नहीं है। 005, 2. समग्र निकायाश्रयी विमानसंख्याप्राप्ति रीति अब समग्र निकाय स्थानाश्रयी समुच्चयमें दोनों प्रकारके विमानोंकी संख्या प्राप्त करनेको दो रीतें बताई हैं, उनमें प्रथम अगाऊकी गाथानुसार बताई जाती है / .
SR No.004267
Book TitleSangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Original Sutra AuthorChandrasuri
AuthorYashodevsuri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1984
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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