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________________ 276 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [ गाथा 97-98 वर्ल्ड वट्टस्सुपरिं, तसं तंसस्स 'उवरिमं होइ / चउरंसे चउरंसं, उड्ढं तु विमाणसेढीओ / / 97 / / [प्र. गा. सं. 24] गाथार्थ-प्रथम प्रतरमें जिस स्थान पर वर्तुल विमान है उसके ऊपरके प्रतरमें समश्रेणिमें वर्तुल ही होता है, त्रिकोण पर त्रिकोण ही होता है और चौकोन पर चौकोन विमान होते हैं, इस तरह ऊर्ध्व विमानकी श्रेणियाँ आई हैं / // 97 // विशेषार्थ-कोई एक मनुष्य अथवा देव सौधर्मके प्रथम प्रतरमें रहे जो पंक्तिगत विमान हैं उनमेंसे त्रिकोण, चौकोन अथवा गोल इन तीनोंमेंसे किसी भी विमानके मध्यस्थानसे ऊर्ध्व उड़ने लगे तो सीधे समश्रेणिमें जाते उस देवने यदि त्रिकोणमें उडनेका शुरू किया हो तो, आगेके प्रतरगत त्रिकोण विमानमें ही आकर खड़ा रहे, क्योंकि प्रथम प्रतरगत पंक्तिविमान जिस स्थानमें जिस आकारवाले हों उसी स्थान पर ऊर्ध्वभागमें उत्तरोत्तर प्रतरमें उसी आकारवाले विमान होते हैं। फक्त इतना विशेष कि, आवलिकागत विमानोंकी संख्यामें प्रत्येक प्रतरमें एक एककी न्यूनता समझना / [97] (प्र. गा. सं. 24) अवतरण-अब वे विमान कितने द्वारवाले होते हैं ? यह कहते हैं / सब्वे वट्टविमाणा, एगदुबारा हवंति * नायब्वा / तिणि य तंसविमाणे, चत्तारि य हुंति चउरंसे // 98 // [प्र. गा. सं. 25] गाथार्थ-सर्व गोलाकार विमानोंके एक ही द्वार होता है, त्रिकोण विमानोंके तीन द्वार होते हैं और चौकोन विमानोंके चार द्वार हैं / // 98 // विशेषार्थ-सुगम है / मात्र गोल विमानके एक द्वारकी दिशा पूर्व समझना उचित है। गोल विमानके एक ही द्वार होता है यह बात आवलिका प्रविष्ट वृत्तविमानकी सम्भव है। शेषके लिए अधिक द्वार भी होनेका सम्भव सही है / [ 98 ] [प्र. गा. सं. 25 ] अवतरण-अब आवलिकागत और पुष्पावकीर्ण विमानोंका परस्परं अन्तर प्रमाण दर्शाते हैं। 1. उप्परिं // * विण्णेया पाठां० /
SR No.004267
Book TitleSangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Original Sutra AuthorChandrasuri
AuthorYashodevsuri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1984
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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