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________________ समयादिसे लेकर शीर्षप्रहेलिका तककी संख्या गाथा 3-4 [ 27 , ३४चन्द्रमुहूर्त और सूर्यमुहूर्त ऐसे दो प्रकारके हैं। इस मुहूर्तमें एक समय कम होने पर उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त कहलाता है और लघुमें लघु (जघन्य ) अन्तर्मुहूर्त 9 समयका होता है। 10 समयसे लेकर उत्कृष्ट अन्तमुहूर्त में एक समय न्यून पर्यन्त मध्यम अन्तर्मुहूर्त गिना जाता है। अतः यह 'अन्तर्मुहूर्त असंख्य प्रकारसे' है ऐसा सिद्धान्तोंमें कहा गया है, यह बराबर घटित होता है / 30 मुहूर्त [60 घडी ]का 1 सूर्यदिवस होता है, ऐसे 15 सूर्यदिवसका 1 सूर्यपक्ष होता है और 15 चान्द्र-दिवसका भी 1 चान्द्र-पक्ष कहा जा सकता है, जिसे व्यवहारमें पक्ष-'पखवाड़ा' कहते हैं। ऐसे दो पखवाड़ोंसे एक मास होता है, 12 मासोंसे १-सूर्य-संवत्सर होता है, पाँच सूर्यसंवत्सरोंका 1 युग होता है, 84 लाख सूर्यसंवत्सरोंसे 1 पूर्वाग, 84 लाख पूर्वांगोंसे 1 पूर्व तथा 84 लाख पूर्वोसे 1 त्रुटितांग होता है, [इतना आयुष्य श्री ऋषभदेव स्वामीका था।] 84 लाख त्रुटितांगोंसे 1 त्रुटित, 84 लाख त्रुटितोंसे 1 अडडांग, ऐसे चौरासी लाख चौरासी लाखसे गुना करते हुए शीर्षप्रहेलिका तक आये। जैसे कि-3'अडडांग, 3 अडड, अववांग, अवव, हुहुकांग, हुहुक, उत्पलांग, उत्पल, पद्मांग, पद्म, नलिनांग, नलिन, अर्थनिपूरांग, अर्थनिपूर, अयुतांग, अयुत, प्रयुतांग, प्रयुत, नयुतांग, नयुत, चूलिकांग, चूलिका, शीर्षप्रहेलिकांग और शीर्षप्रहेलिका / इस तरह शीप्रिहेलिका 3°तककी संख्या हुई। पश्चात् असंख्यात वर्षका एक पल्योपम होता है, जिसका स्वरूप इस प्रकार है। . 34. चन्द्रमुहूर्त के बाद रात्रिके मुहूतों के नाम अलग-अलग प्रकारवाले हैं, उनका तथा सूर्यायनदक्षिणायनादि प्रकारोंका विस्तृत स्वरूप 'काललोकप्रकाश में देखें / 35. “पुव्वतुडियाडडाववहुहूय, तह-उप्पले य-पउमेय / अट्ठावीसुं च ठाणा, चउणउ यं होइ ठाण-सयं // " .36. ज्योतिएकरण्डकादि अन्य ग्रन्थोंमें इस संख्याके नाम अलग प्रकारसे कहे हैं / . 37. आजके प्रचलित गणितकी तरह जैनशास्त्रमें 18 . अंक पर्यन्त ही संख्या या उनके नाम नहीं हैं, परन्तु 194 अथवा मतान्तरसे 250 अंक तककी संख्याएँ उनके नामोंके साथ हैं। उनमें एक मतके अनुसार शीर्षप्रहेलिकाका अंक 7582632532730102411579735699756964062189 66848080183296, इन 54 अंकों पर 140 शून्य लगाने जितना होता है, अर्थात् कुल 194 अंक-प्रमाण हैं / इस तरह माथुरीवाचना-प्रसंग पर अनुयोगद्वारमें कहा गया है। श्री भगवतीजी, जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति और स्थानांगादि आगम ग्रन्थोंमें यही अभिप्राय व्यक्त हुआ है। . जब कि अन्य ज्योतिष्करण्डकादिग्रन्थोंमें उससे भी बृहत् संख्या गिनवाई है, अर्थात् 70 अंकोंको 180 शून्य लगानेसे 250 अंकप्रमाण संख्या प्राप्त होती है / जो यह रही-१८७९५५१७९५५०११२
SR No.004267
Book TitleSangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Original Sutra AuthorChandrasuri
AuthorYashodevsuri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1984
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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