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________________ मेरुकी अपेक्षासे चन्द्रमण्डल अबाधा ] गाथा 86-90 [263 मेरुके आश्रित प्रतिमण्डलकी अबाधा-२ - ऊपर जो अबाधा कही गई वह मेरु और सर्वाभ्यन्तरमण्डलके बिचकी कही, क्योंकि उस मण्डलसे अवाक् ( मेरुकी तरफ ) अब एक भी मण्डल नहीं होता | सर्वाभ्यन्तरमण्डलके बादके (अर्थात् दूसरे) मण्डल तक जाने पर 36 यो० और 254 भाग प्रमाण अन्तरक्षेत्र बढ़ता है, क्योंकि केवल अन्तरक्षेत्र 35 यो० 30 भाग 4 भागका उसमें प्रथम मण्डलविमान विस्तार अन्तर्गत लेनेका होनेसे 56 भाग उक्त अन्तरप्रमाणमें मिलनेसे 36 योजन इकसठवें 25 भाग और 4 सातवें प्रतिभागप्रमाण आ जाएँगे / अत: मेरुसे दूसरा मण्डल 44856 यो० और 254 भाग प्रमाण दूर हो / इस तरह प्रथममण्डलकी अपेक्षा आगेके अनन्तररूपमें रहे दूसरे मण्डलोंमें 36 यो० और 254 भागकी वृद्धि करते जाइए। इस तरह प्रतिमण्डल. अबाधा निकालने पर जब सर्वबाह्यमण्डलमें जावें तब सर्वबाहमण्डल और मेरुके बिच 45329 5, इकसठांश जितना ( मेरुके दोनों बाजू पर) अन्तर पड़ता है / यह सर्व विचारणा सूर्यमण्डलोंके अबाधा प्रसंग पर कही है। उस प्रकार यहाँ विचार लेना / इति मेरुप्रतीत्यप्रतिमण्डलमबाधा प्ररूपणा || चन्द्र-चन्द्र के बिच प्रतिमण्डलकी परस्पर अबाधा और व्यवस्था जब जम्बूद्वीपवर्ती दोनों चन्द्र (आमने सामने ) सर्वाभ्यन्तरमण्डलमें हों तब उन दोनोंके बिचका अन्तरक्षेत्र प्रमाण सूर्योकी तरह 99640 योजनका होता है / यह प्रमाण द्वीपके एक लाख योजनके विस्तारमेंसे दोनों बाजूका जम्बूद्वीपगत मण्डलक्षेत्र ( 180 + 180 = 360 योजन ) कम करनेसे प्राप्त होता है, जो हकीकत पहले सूर्यमण्डल . प्रसंग पर कही गई है। सर्वाभ्यन्तरमण्डलके बाद जब दोनों चन्द्र दूसरे मण्डलमें प्रवेश करें तब उनका परस्पर अन्तर 99712 यो०से अधिक 51, इकसठांश भाग प्रमाण होता है, जो इस तरह. एक चन्द्र-एक बाजू पर दूसरे मण्डलमें गया तब सर्वाभ्यन्तरमण्डलकी अपेक्षासे (अन्तरप्रमाण और विमान विष्कंभ सह) 33 यो० और 254 इकसठवाँ भाग प्रमाण दूर गया / इस बाजू पर भी दूसरा चन्द्र दूसरे मण्डलमें उतनी ही दूर गया होता है। अतः हरएक मण्डलमें दोनों बाजू पर अनन्तर अनन्तर मण्डलोंमें प्रवेश करते चन्द्रोंकी (मण्डल दूर दूर होते होनेसे ) दोनों बाजूकी होकर 25572 यो० और 51 3 भाग प्रमाण जितनी अबाधाकी वृद्धि होती जाती है / इस तरह प्रत्येक मण्डलमें 72 यो० 51 भागकी वृद्धि करते जानेसे और प्रतिमण्डलमें परस्परकी अबाधा सोचते जाते जब सर्वबाह्यमण्डलमें 255 की टिप्पनी 264 वाँ पृष्ठ पर देखियें /
SR No.004267
Book TitleSangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Original Sutra AuthorChandrasuri
AuthorYashodevsuri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1984
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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