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________________ 250 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [ गाथा 86-90 शुरु होकर लवणसमुद्रके बिच पूर्णता पाई होनेसे उसकी ( मेरुसे लेकर लवणसमुद्र पर्यंतकी) लम्बाई 78333 योजन है। इसमेंसे केवल जम्बू-जगति तकका क्षेत्र प्रमाण गिने तो 45000 योजन हो और शेष 33333 योजन प्रमाण लवणसमुद्रमें प्रत्येक आकृतिका एक बाजू पर होता है। ____ इस तरह जिनके मतसे सूर्यका प्रकाश मेरुसे प्रतिघात पाता है उनके मतसे यह समझना। परन्तु सूर्यका प्रकाश प्रतिघात नहीं पाता, लेकिन मेरुकी महान गुफाओंमें भी फैलता है उनके मतसे तो मेरु-पर्वतसे अर्ध विस्तारवाली मेरुकी महान गुफाओंके पांच हजार योजन सहित 45 हजार योजन मिलाकर 833333 योजन तापक्षेत्र प्रमाण कहना / यह तापक्षेत्र पूर्व-पश्चिम दिशामें हो तब उसी तरह लम्बाई (चौडाई ) की व्यवस्था यथायोग्य विचारें। सारे मण्डलोंका विचार करने पर तापक्षेत्रकी लम्बाई हमेशा अवस्थित२५१ रहती है क्योंकि विपर्यास तो चौडाईमें ही परिधिकी वृद्धिके अनुसार अन्दर-बाहर मण्डलमें आते जाते सूर्यके प्रकाश-अन्धकारके क्षेत्रमें हो सकता है / . आतपक्षेत्रका चौडाई-विस्तार-इस तापक्षेत्रकी आकृति मेरुके पास अर्धवलयाकार जैसी होती होनेसे मेरुके पास उसकी चौडाई मेरुके परिधिके तीन दशांश (3) अर्थात् 486 % जितनी होती है, वहाँसे लेकर क्रमश: चौडाईमें विस्तारवाली होती हुई समुद्रकी तरफकी चौडाई अन्तर्मण्डलके (सर्वाभ्यन्तर) परिधिके तीन दशांश जितनी (94536 योजन ॐ भागकी ) होती है। इस तापक्षेत्रकी दोनों प्रकारकी चौडाई (मेरु तथा लवणसमुद्रकी तरफकी ) अनवस्थितअनिश्चित है क्योंकि दक्षिणायनमें प्रकाशक्षेत्रमें क्रमशः हमेशा 32 भाग क्षेत्रके जितनी हानि होती है जबकि दक्षिणायनकी समाप्ति उत्तरायणका आरम्भ होनेसे पुनः कम हुए उसी तापक्षेत्रके विस्तारमें पुनः क्रमशः दो भाग वृद्धि होने लगती है और इससे मूलप्रमाण आ जाता है / अतः सूर्य जब सर्वबाह्यमण्डलमें पहुंचता है तब जितना क्षेत्र कम करता है और पुनः लौटकर सर्वाभ्यन्तरमण्डलमें आवे तब पुनः + बढ़ाता है। यह क्षेत्र गमनकी हानि-वृद्धि 6 मुहूर्त में गमन कर सके उतनी ही होती है क्योंकि साढेतीस मण्डलमें एक सूर्य 1 मुहूर्तमें गमन कर सके उतना क्षेत्र बढ़ाता ( कम भी करता) है / इति आतपक्षेत्राकृतिविचारः // 251. परन्तु इतना विशेष समझना कि सूर्य ज्यों ज्यों बहिर्मण्डलमें जाता जाए त्यों त्यों तापक्षेत्र प्रथम मण्डलकी अपेक्षा प्रतिमण्डल क्रमशः दूर दूर खसकता और लवण की तरफ बढ़ता जाए, परन्तु तापक्षेत्रकी लम्बाईका प्रमाण तो अवस्थित ही रहता है /
SR No.004267
Book TitleSangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Original Sutra AuthorChandrasuri
AuthorYashodevsuri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1984
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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