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________________ दक्षिणायन-उत्तरायणका स्वरूप ] गाथा 86-90 [ 233 इसीलिए जब सूर्य सर्वबाह्यमण्डलमें आकर सर्वबाह्यमण्डलके दूसरे ( 1833) मण्डलमें प्रथम क्षणमें प्रवेश करके जिस अहोरात्रिसे इस मण्डलको पूर्ण करे वह अहोगात्र 'उत्तरायण 'के प्रारम्भकालकी प्रथम अहोरात्रि कहलाती है। जिस तरह दक्षिणायनका प्रारम्भ सर्वाभ्यन्तर प्रथम मण्डल वर्ण्य गिना जाता है इस तरह उत्तरायणका प्रारम्भ भी सर्वबाह्यमण्डल वर्म-द्वितीय मण्डलसे गिना जाता है, और वह योग्य ही है, क्योंकि सूर्य सर्वाभ्यन्तर मण्डलके द्वितीय मण्डलसे लेकर जब अंतिम सर्वबाह्यमण्डल (प्रथमको वर्जित करके 183 मण्डल )को घूम ले तब दक्षिणायनका (सूर्य दक्षिण दिशाकी तरफ रहे सर्व बाह्यमण्डलकी तरफ जाता होनेसे ) जो छः मासका काल वह यथार्थ प्राप्त होता है। इसी तरह सूर्य जब सर्वबाह्यमण्डलके द्वितीय मण्डलसे प्रारम्भ होकर जब सर्वाभ्यन्तरमण्डलमें प्रथम क्षणमें आकर उस मण्डलको घूम ले तब उत्तरायणका जो छः मासका काल वह यथार्थ पूर्ण होता है। यहाँ इतना विशेषमें समझें कि-प्रतिवर्ष दोनों सूर्योका सर्वाभ्यन्तरका प्रथम मण्डल और सर्वबाह्य-वह अंतिम मण्डल, इन दो मण्डलोंको वर्ण्य शेष 182 मण्डलोंमें (दक्षिणायन प्रसंग पर) जाते और ( उत्तरायण प्रसंग पर ) आते, इस तरह दो बार जाना-आना होता है / जब कि, सर्वाभ्यन्तर और सर्वबाह्यमण्डलमें सूर्योका सम्पूर्ण संवत्सरमें एक ही बार आवागमन होता है। [ क्योंकि कल्पनाके रूपमें सोचते सर्वबाह्यमण्डलसे आगे घूमनेके लिए अन्य मण्डल है ही नहीं कि जिससे सूर्योको आगेका मण्डल घूमकर सर्वबााह्यमण्डलमें पुनःदूसरी बार आनेका बने, वैसे ही सर्वाभ्यन्तरमण्डलसे अर्वाक्-अन्दर भी मण्डलक्षेत्र नहीं है जिससे सर्वाभ्यन्तर मण्डलमें भी दो बार घूमनेका अवसर प्राप्त हो, यह वस्तु ही नहीं है तो फिर दो बारके आवागमनकी विचारणा ही अयोग्य है / ] इस तरह उन दोनों सूर्योंका सर्वाभ्यन्तर और सर्वबाह्यमण्डलका होकर दो अहोरात्रि . * काल और बिचके 182 मण्डलों में सूर्यका संवत्सरमें दो बार आगमन होनेके कारण प्रत्येक मण्डलाश्रयी दो अहोरात्रि काल होता होनेसे 182 मण्डलाश्रयी 364 दिवस काल-उसमें पूर्वोक्त. दो मण्डलोंका दो अहोरात्रिकाल प्रक्षिप्त करनेसे 366 दिवस काल एक संवत्सरका प्राप्त होता है। उपरोक्त कथनानुसार सूर्य दक्षिणाभिमुख गमन करते सर्वाभ्यन्तर मण्डलके द्वितीय मण्डलसे लेकर सर्वबाह्यमण्डलके अन्तिम १८४वें मण्डलमें पहुँचते हैं / यहाँ सर्वबाह्यमण्डल दक्षिणमें होनेसे सूर्यकी दक्षिणाभिमुख गतिके कारण होता छः मासका काल सर्व दक्षिणायनका कहलाता है। इस दक्षिणायनका प्रारम्भ हो तबसे सूर्य सर्वबाह्यमण्डलकी तरफ होनेसे क्रमशः उस सूर्यका प्रकाश उन उन क्षेत्रोंमें घंटता जाता है, हम उसके तेज की भी मन्दता बृ. सं. 30
SR No.004267
Book TitleSangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Original Sutra AuthorChandrasuri
AuthorYashodevsuri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1984
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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