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________________ 228 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [ गाथा 86-90 अनुलक्ष्य प्रत्येक सूर्य व्यवहारपूर्वक संचरते हुए विशिष्ट प्रकारकी विशिष्ट २3गतिसे, अपने अपने योग्य अर्द्ध अर्द्ध मण्डलमें संक्रमण करके प्रत्येक अहोरात्रि पर्यन्तमें 2 यो० है। भाग क्षेत्रको बिताते हुए और दिनमानमें प्रत्येक मण्डलका संक्रमण करते, 31 मुहूर्त भागको खपाते हुए, अन्य अन्य मण्डलों में प्रथम क्षणमें संक्रमण करते हैं / वे सूर्य दक्षिणायनमें छ: मासके अन्तमें सर्वबाह्यमण्डलमें पहुंचते हैं। और जिस तरह सर्वाभ्यन्तरमण्डलसे सर्वबाह्यस्थानमें पहुंचे थे वैसे ही पुनः सर्वाभ्यन्तरमण्डलमें उत्तरायणमें छः मासमें लौटते हैं / इस तरह वे दोनों सूर्य एक संवत्सरका काल पूर्ण करते हैं / वह इस तरह उसमें सर्वबाह्यमण्डलसे आया हुआ और सर्वाभ्यन्तरमण्डलमें दक्षिण पूर्वदिशामें वर्तित सूर्य, प्रथम क्षणमें प्रवेश करता हुआ उस प्रथम क्षणसे ऊर्ध्व-आगे आगे धीरे धीरे सर्वाभ्यन्तरमण्डलमें विचरता विचरता वह सर्वाभ्यन्तरमण्डलसे अनन्तर द्वितीय मण्डलाभिमुख गमन करता हुआ जहाँ पहुँचना है उस मण्डलकी कोटिको अनुलक्ष्य किसी ऐसे प्रकारकी (कर्णकीलिका) गति विशेष करके इस तरह मण्डल परिभ्रमण करता है कि जिससे एक अहोरात्रि चार पर्यन्तमें सर्वाभ्यन्तरमण्डलसे निकला वह सूर्य जब सर्वाभ्यन्तरमण्डलके प्रथम क्षणस्थानसे 2 यो० 46 भाग दूर क्षेत्रमें पहुंचे तब दक्षिणार्द्धके सर्वाभ्यन्तरमण्डलसे संक्रमण करके मेरुसे वायव्यमें आए हुए उत्तर दिशावर्ती आए द्वितीय अर्द्धमण्डलकी सीमामें आदि प्रदेशमें आवे, अर्थात् दूसरे मण्डलकी कोटीके ऊपर प्रथम क्षणमें आ जाए / तत्पश्चात् वह सूर्य उस प्रकारकी गति विशेष करके प्रथम क्षणसे आगे आगे धीरे धीरे गमन करता करता, दीपककी तरह मेरुके उत्तर भागको प्रकाशित करता हुआ नूतन वर्षके 236. यहाँ भेदधातसे होता संक्रमण अर्थात् विवक्षित मण्डलसे अनन्तर मण्डलमें संक्रमण करना चाहते सूर्यने जिस स्थानसे प्रारम्भ किया उसी स्थान पर आकर उस मण्डलके अनन्तर मण्डलके बिच रहा हुआ दो योजनका जो अन्तरक्षेत्र उस क्षेत्रमें पुनः सीधा चलकर फिर दूसरा मण्डल शुरू करता है ऐसा न समझना, यह मान्यता तो परतीर्थिककी है, और इसीलिए ऐसा समझनेसे बड़ा दोष उपस्थित हो जाता है कि एक मण्डलसे दूसरे मण्डलमें भेदधातसे अर्थात् सीधा क्षेत्रगमन करनेमें जो काल बीते उतना काल आगेके मण्डलमें विचरनेके लिए कम हो और इससे दूसरे मण्डलका एक अहोरात्रि काल भी पूर्ण न हो और दूसरा मण्डल पूर्ण विचर न सकनेसे सकल जगत् विदित नियमित रात्रि-दिवस मानमें व्याघात होनेसे अहोरात्रियोंको अनियत होनेके दोषका प्रसंग आ जाएगा अतः यह मत अयुक्त है और उपर्युक्तमत युक्त है क्योंकि इससे विवक्षित स्थानसे सूर्यगमन ही ऐसे प्रकारका करते करते मण्डल चरता है कि एक अहोरात्रि पर्यन्तमें वह अपान्तराल क्षेत्रके साथ अनन्तर मण्डलकी कोटीको एक अहोरात्रि पर्यन्त पहुँच जाता है /
SR No.004267
Book TitleSangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Original Sutra AuthorChandrasuri
AuthorYashodevsuri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1984
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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