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________________ 192 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [ गाथा 83-85 भावार्थ सुगम है। तत्त्वार्थसूत्रकी टीकामें भी ऊपरका ही अभिप्राय परस्परमन्तरं योजनानां लक्षं भवतीति / सम्प्रति बहिश्चन्द्रसूर्याणां पङ्क्ताववस्थानमाह- सूरतरिया' इत्यादि, नृलोकादहिः पत्या स्थिताः सूर्यान्तरिताश्चन्द्राश्चन्द्रान्तरिता दिनकरा दीप्ताः xxxxx / कथंभूतास्ते चन्द्रसूर्याः इत्याह- .. 'चित्रान्तरलेश्याकाः' चित्रमन्तरं लेश्या च-प्रकाशरूपा येषां ते तथा, तत्र चित्रमन्तरं चन्द्राणां सूर्यान्तरित्वात् सूर्याणां च चन्द्रान्तरित्वात् , चित्रलेश्या चन्द्रमसां शीतरश्मित्वात् सूर्याणामुष्णरश्मित्वात् // " [ मुद्रित पत्र 28] " चन्द्रमसां सूर्याणां च प्रत्येकं लेश्या योजनशतसहस्रप्रमाणविस्ताराश्चन्द्रसूर्याणां च सूचीपङ्क्त्या व्यवस्थितानां परस्परमन्तरं पञ्चाशद्योजनसहस्राणि, ततश्चन्द्रप्रभासम्मिश्राः सूर्यप्रभाः सूर्यप्रभासम्मिश्राश्चन्द्रप्रभाः” [पत्र 282] भावार्थ :-“मानुषोत्तरपर्वतसे बाहरके द्वीप-समुद्रोंमें सूर्यसे सूर्यका तथा चन्द्रसे चन्द्रका परस्पर अन्तर (साधिक) एक लाख योजन प्रमाण है, वे इस तरह-सूर्य चन्द्रान्तरित अर्थात् चन्द्रके आंतरेवाले हैं, अर्थात् दो सूर्यके बिच एक चन्द्र है और चन्द्र सूर्यान्तरित हैं / चन्द्रसे सूर्यका अंतर पचास हजार योजन प्रमाण है, अतः सूर्य-सूर्यका चन्द्र-चन्द्रका परस्पर अंतर एक लाख योजन प्रमाण कहा वह बराबर है / अब मानुषोत्तर पर्वतके बाहर चन्द्र-सूर्यकी पंक्ति व्यवस्था जणाते हैं -मनुष्यक्षेत्रके बाहर पंक्तिमें स्थित सूर्यान्तरित चन्द्र और चन्द्रान्तरित तेजस्वी सूर्य विचित्र अन्तरवाले तथा विचित्र प्रकाशवाले हैं, उनमें विचित्र अन्तरवाले अर्थात् दो चन्द्रोंके बिच एक सूर्यका अंतर है और दो सूर्योंके बिच एक चन्द्रका अंतर है ऐसे चन्द्र सूर्य होते हैं, साथ ही विचित्र प्रकाशवाले अर्थात् चन्द्र शीतकिरणवाले और सूर्य उष्णकिरणवाले हैं / " "चन्द्र-सूर्य प्रत्येकका प्रकाश एक लाख योजन विस्तारवाला. है, सूचीश्रेणी द्वारा व्यवस्थित चन्द्रसूर्योंका अंतर पचास हजार योजन है, अतः चन्द्रप्रभासे मिश्रित सूर्यप्रभा है और सूर्यप्रभासे मिश्रित चन्द्रप्रभा है।" विशेषमें मनुष्यक्षेत्रके बाहरके विमानोपपन्न ज्योतिषी देवोंके विमान, पक्की इंटके समान लम्बचतुष्कोण आकारके होते हैं, और उन विमानोंका आतपक्षेत्र-प्रकाश्यक्षेत्र-विस्तारसे (चौड़ामें) एक लाख योजन प्रमाण है, और आयाम-लम्बाईसे अनेक लाख योजन प्रमाण है। विशेषमें यह भी सोचनेका है कि बाह्यपुष्कराधके लिए 72 चन्द्र, 72 सूर्यकी संख्याको संगत करनेके लिए अन्यमताश्रयी एक बार आदि और अन्तके 50 हजार योजन वर्जित किये जाते हैं। वे इस मतसे वर्जित न करें तो 72 चन्द्र तथा 72 सूर्यकी संख्या यथार्थ समाविष्ट हो जाती है, परन्तु आगे प्रतिद्वीप समुद्रके संघिस्थानोंमें चन्द्र-सूर्यका सहयोग हो जाएगा और इससे उक्त अंतरादि व्यवस्थाका भङ्ग
SR No.004267
Book TitleSangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Original Sutra AuthorChandrasuri
AuthorYashodevsuri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1984
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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