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________________ मनुष्यक्षेत्रके बाहर सूर्य-चन्द्रकी पंक्ति सम्बन्धमें मतान्तर ] गाथा 83-85 [15 अति शीत और अति उष्ण प्रकाश देनेवाले नहीं हैं, अर्थात् मनुष्यक्षेत्रके चन्द्र-सूर्योकी तरह विशेष प्रमाणमें शीत और उष्ण लेश्यावाले होते हैं वैसी विशिष्ट शीत उष्ण लेश्या: वाले मनुष्यक्षेत्रके बाहरसे चन्द्र-सूर्य होते नहीं हैं। जिसके लिए श्रीसूर्यप्रज्ञप्तिमें बताया है कि 'सुरंतरिया चन्दा, चन्दन्तरिया य दिणयरा दित्ता / चित्तन्तरलेसागा सुहलेसा मन्दलेसा य // 1 // ' संख्याका समावेश होता है, परन्तु सूर्यकी संख्या जो ७२की कही है उनमें से ६३का समावेश होता है जब कि नव सूर्य शेष रह जाते हैं / पंक्तिमें प्रथम सूर्य रक्खा जाए तो 72 सूर्योका समावेश हो, परन्तु नव चन्द्रकी संख्या अवशिष्ट रहती है, अर्थात् मलयगिरि महाराज और चन्द्रीया टीकाकार महर्षिके अभिप्रायानुसार सूचीश्रेणिकी व्यवस्था जो कि घट सकती है, चन्द्रसे चन्द्रका, सूर्यसे सूर्यका, और चन्द्रसे सूर्यका इष्ट अंतर भी इस व्यवस्थामें प्राप्त होता है, फिर भी पंक्तिमें प्रथम चंद्रको लें या सूर्यको ? इस शंकाका समाधान शेष रह जाता है, ऊपरांत ऊपर जणाये अनुसार नव चन्द्रों अथवा नव सूर्योंका पंक्तिमें इष्ट अंतर रखने पर समावेश होता नहीं है, यह विरोध उपस्थित रहता है, फिर भी * " चंदाओ सूरस्स य सूरा चंदस्स अंतरं होइ / पन्नाससहस्साई तु जोयणाई अणूणाई // 1 // सूरस्स य सूरस्स य ससिणो ससिणो य अंतरं होइ / बहियाउ माणुसनगस्स जोयणाणं सयसहस्सं // 2 // सूरतरिआ चंदा चंदंतरिआ य दिणयराऽऽदित्ता / चित्तंतरलेसागा सुहलेसा मंदलेसा य // 3 // ' ___इस सिद्धांतकी तीन गाथाओंके अनुसार जणाए'ततः सम्भाव्यते सूचीश्रेण्या न परिरयश्रेण्या अन्यथा वा बहुश्रुतैर्यथागमं परिभावनीयम्' उभय टीकाकार महर्षिओंके ऐसे वचनोंसे अंतिम दोनों पक्षोंमें सूचीश्रेणिकी व्यवस्था तो घट सकती है, परंतु कोई न कोई एकाद विरोध उपस्थित हो जानेसे-जब एक बाजूसे किसी भी प्रकारका निश्चित निर्णय नहीं दिया जा सकता, तब दूसरी ओरसे श्री सूर्यप्रज्ञप्ति-टीकाके नीचे जणाए दोनों पाठोंसे श्री टीकाकार भगवंतको यह अंतिम पक्ष ही यथार्थ मान्य है / यह माने बिना भी चलनेवाला नहीं है / ये पाठ इस तरह है " सूरस्स य सूरस्स य” इत्यादि, मानुषनगस्य-मानुषोत्तरपर्यतस्य बहिः सूर्यस्य सूर्यस्य परस्परं चंद्रस्य चंद्रस्य च परस्परमंतरं भवति योजनानां ' शतसहस्रं' लक्षम् तथाहि-चंद्रांतरिताः सूर्याः सूर्यान्तरिताश्चन्द्राः व्यवस्थिताः चंद्रसूर्याणां च परस्परमन्तरं पञ्चाशत् योजनसहस्राणि (50.00), तत चन्द्रस्य सूर्यस्य च
SR No.004267
Book TitleSangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Original Sutra AuthorChandrasuri
AuthorYashodevsuri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1984
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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