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________________ 172 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [गाथा 80-81 संख्याके हिसाबसे ऐसे दो योजनका विमान अन्तर लेनेसे नक्षत्र विमानसे रहित मण्डलक्षेत्र बहुत खाली रह जाता है। अरे! आगे आगेके मण्डलमें जहाँ दो-दो या एक-एक नक्षत्र आते हैं वहाँ क्या करें ? यह भी विचारणीय है / इति नक्षत्रयोः परस्परमन्तरम् / / नक्षत्रमण्डलोंकी मुहूर्तगति-सर्वाभ्यन्तरमण्डलमें नक्षत्रकी मुहूर्तगति 5265 3636 योजनकी होती है / और सर्वबाह्यमण्डलमें नक्षत्रोंकी गति 5319 35 योजनकी होती है, यह परिधिकी वृद्धिके हिसाबसे सहज समझा जा सकता है। शेष 6 (छः ) मण्डलोंकी गति उस स्थानके चन्द्रमण्डलके घेरे परसे सूर्य-चन्द्रमण्डलकी रीतिके अनुसार पाठकोंको जरूरत लगे तब निकाल लें / इति नक्षत्राणां मुहूर्तगतिः // . नक्षत्रों की कुलादिकप्ररूपणा—अट्ठाईसों नक्षत्रोंके आकार प्रायः अलग-अलग और प्रत्येककी विमानपरिवार संख्या भी भिन्नभिन्न है। . ये अठाइसों नक्षत्र 'कुलसंज्ञक ', ' उपकुलसंज्ञक' और 'कुलोपकुलसंज्ञक ' इस तरह तीन प्रकारके हैं / इनमें 1. अश्विनी, 2. पुष्य, 3. मघा, 4. मूल, 5. उत्तराभाद्रपदा, 6. उत्तराफाल्गुनी, 7. उत्तराषाढा, 8. विशाखा, 9. मृगशीर्ष, 10. चित्रा, 11. कृत्तिका और 12. धनिष्ठा ये बारह नक्षत्र कुलसंज्ञक हैं और इन नक्षत्रोंके योगसे जन्मा हुआ जीव दातार और संग्रामादिमें जय पानेवाला होता है / ...शेषमेंसे 1. भरणी, 2. रोहिणी, 3. पूर्वाभाद्रपदा, 4. पूर्वाफाल्गुनी, 5. पूर्वाषाढा, 6. हस्त, 7. ज्येष्ठा, 8. पुनर्वसु, 9. आश्लेषा, 10. स्वाति, 11. रेवती, 12. श्रवण ये बारह नक्षत्र उपकुलसंज्ञक हैं, शेष 1. आर्द्रा, 2. अभिजित् , 3. अनुराधा, 4. शततारा ये चार कुलोपकुलसंज्ञक हैं / इन दोनों प्रकारके नक्षत्रोंमें जीव जन्म पाया हुआ हो तो उस जीवको पराधीनता आदिमें पीड़ना पड़ता है और संग्रामादि कार्योमें उनकी जय अनिश्चित होती है / इति नक्षत्राणां कुलादिप्ररूपणा // नक्षत्र विमानके अश्वस्कन्ध आदि रुपों द्वारा जो आकार कहे हैं वे अनेक तारों के मिलनसे बने हुए आकार हैं। प्रत्येक तारेके व्यक्तिगत आकार तो अलग अलग होते हैं, परन्तु उन सर्व तारोंका अधिपति देव एक नक्षत्र देव ही होनेसे एक नक्षत्र कहलाता है। जैसे कि शततारक नक्षत्र 100 तारों रूप विमानोंका बना है, तदपि उन सौ विमानोंका अविपति शततारक नामकर्मोदयी एक ही नक्षत्रदेव है; अतः समुदाय तारकोंको एक ही 'शततारक' नक्षत्र गिना जाता है। तद्वत् अश्विनी आदिमें समझ लें / तारोंके समूहको नक्षत्र कहा जाता है / इति नक्षत्रव्याख्या / विशेषमें यहाँ यह भी समझे कि जम्बूद्वीपमें जिस दिन अश्विन्यादि कोई भी नक्षत्र दक्षिणार्धभागमें एक चन्द्र के परिभोगके लिए होता है, उसी दिन उस नक्षत्रकी समश्रेगिमें उत्तरार्धभागमें दूसरे चन्द्रको उन्हीं नामोंके नक्षत्र परिभोगके लिए होते हैं /
SR No.004267
Book TitleSangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Original Sutra AuthorChandrasuri
AuthorYashodevsuri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1984
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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