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________________ 162 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [ गाथा 78-79 ~ ~ लेकर ) सारे द्वीप-समुद्रोंके चन्द्र-सूर्योकी संख्याको जोड़े / अब ऐसा करनेसे जो संख्या प्राप्त होती है उस संख्याको इष्टद्वीप या इष्टसमुद्रके चन्द्र-सूर्योकी जाने / उदाहरण स्वरूप कालोदधि समुद्रके चन्द्र-सूर्योकी संख्या अगर जाननी हो तो, धातकीखण्डके बारह चन्द्र-बारह सूर्यकी संख्याको तीन गुनी करनेसे (12 4 3 = 36 ) छत्तीस आते हैं, उनमें जम्बू और लवणके मिलकर छः चन्द्र और छः सूर्यकी संख्याको जोड़नेसे (36 + 6 = 42) बयालीस चन्द्र और बयालीस सूर्य आठ लाख योजनके विस्तारवाले कालोदधि समुद्रमें आते हैं। उसी तरह अर्ध पुष्करवर द्वीपके लिए भी समझे / वह इस तरह-कालोदधि समुद्रके-४२ चन्द्र और 42 सूर्यके १८२तीन गुना करके पूर्वके द्वीप-समुद्रोंमेंसे 18 चन्द्र और 18 सूर्य जोड़नेसे सोलह लाख योजनके विस्तारवाले पुष्करवरद्वीपमें 144 चन्द्रों और उतने ही सूर्योकी संख्या प्राप्त होती हैं / हमें तो अब अर्धपुष्करद्वीपके चन्द्र-सूर्यकी संख्या इष्ट होनेसे १४४का आधा करनेसे 72 चन्द्र और 72 सूर्यकी संख्या 18 पुष्करार्धमें प्राप्त होती हैं / इस ‘करण 'से असंख्य द्वीप-समुद्रमेंसे किसी भी इष्ट द्वीप-समुद्रकी चन्द्र-सूर्यकी संख्या आसानीसे प्राप्त हो सकती है / मनुष्यक्षेत्रके बाहरके द्वीप-समुद्रोंमें वर्तित चन्द्रों-सूर्योका परस्पर, अंतर संग्रहणीकी गाथा ६५-६६वीं के अनुसार पचास हजार योजनका होनेसे और क्षेत्रविस्तार विशेष प्रमाणका होनेसे, चन्द्र-सूर्योकी समश्रेणि अथवा परिरयश्रेणि सम्बन्धी व्यवस्थाके लिए किसी भी प्रकारका निर्णय करना सुदुष्कर ( बहुत ही कठिन ) लगनेसे प्रति द्वीप-समुद्रमें चन्द्रसूर्योकी संख्या बतानेवाला यह 'त्रिगुणीकरण' मनुष्यक्षेत्रमें ही समझे या प्रत्येक द्वीपसमुद्र के लिए समझे ? इस प्रकारका तर्क अगर किसी विचारशील व्यक्तिको हो तो वह अनुचित नहीं है, तो भी टीकाकारके रूपमें ख्यातनामा श्री मलयगिरिमहर्षि ने तथा चन्द्रीया टीकाकारने श्रीसंग्रहणीवृत्तिमें बताए निम्न पाठसे 'त्रिगुणीकरण 'के विषयके लिए पूर्वोक्त तर्क-विचार करना वास्तविक नहीं लगता / वह पाठ इस तरह है 'मूलसंग्रहण्यां क्षेत्रसमासे च सकलश्रुतजलधिना क्षमाश्रमणश्रीजिनभद्रगणिना सर्वद्वीपोदधिगतचन्द्रार्काभिधायकमिदमेव करणमभिहितं, यदि पुनर्मनुष्यक्षेत्राबहिश्चन्द्रादित्यसङ्ख्या१८२. 'ससिरविणो दो चउरो, बार दु चत्ता विसत्तरिअ कमा / जम्बूलवगाइसु पंचसु, गणेसु नायव्वा // 1 // ' [ मंडलप्रकरण ] 183. 'चउ चउ बारस बारस, लवणे तह धायइम्मि ससि सूरा / परओ दहिदीवेसु, तिगुणा पुब्बिल्लसंजुत्ता // 1 // ' [ क्षेत्रसमास |
SR No.004267
Book TitleSangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Original Sutra AuthorChandrasuri
AuthorYashodevsuri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1984
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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