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________________ सूर्य-चन्द्र सम्बन्धमें समज ] गाथा 78-79 [ 161 साथ ही समग्र मनुष्यक्षेत्रमें समय-आवलिका-मुहूर्त-दिवस-मास-संवत्सरादि सर्व कालको करनेवाला मुख्यरूपसे चरसूर्य ( की गतिक्रिया) ही है, और उस चर सूर्यकी गतिसे उत्पन्न होते कालकी अपेक्षा रखकर ज्ञानी महर्षियोंने मनुष्यक्षेत्रका समयक्षेत्र ऐसा दूसरा नाम भी दिया है / विशेषतः यह समय-आवलिकादि सर्व व्यावहारिक काल इस मनुष्यक्षेत्रमें ही है। अढाईद्वीप बाहरके द्वीपसमुद्रोंमें यह व्यावहारिक काल वर्तित नहीं है, परंतु वह अढाईद्वीपके बाहरके क्षेत्रों में किसी भी स्थान पर पंचास्तिकायके पर्यायरूप पारिणामिक काल (कालाणुद्रव्य) तो है ही। __ऊपरके लेखनसे कदाचित् किसीको शंका होनेका संभव है कि जब व्यावहारिक काल अढाईद्वीप बाहरका नहीं है तो उस अढाईद्वीपके बाहर रहनेवाले तिर्यंचोंका और देवनारकोंका आयुष्य आदि स्थितिकालका प्रमाण जिन सिद्धान्तोंमें आता है वह प्रमाण किस कालकी अपेक्षासे समझे ? इस शंकाके समाधानमें समझना कि 'चक्रकीलिका' न्यायसे समयक्षेत्रमें रहे हुए व्यावहारिक काल द्रव्यसे उस उस वस्तुका पारिणामिक काल माना जा सकता है। उस समयादि कालके करनेवाले सूर्योमेंसे एक सूर्य मेरुकी दक्षिणदिशामें हो तब दूसरा सूर्य उत्तरदिशामें होता है / एक चन्द्र मेरुकी पूर्वदिशामें हो तब दूसरा पश्चिमदिशामें होता है / इस तरह उनकी परस्पर प्रतिपक्षी दिशामें चार क्रियाएँ होती हैं। ये दो चन्द्र और दो. सूर्य जंबूद्वीपमें रहे हुए क्षेत्रोंको प्रकाशित करते हैं / एक चन्द्र-सूर्य कितने क्षेत्रको प्रकाशित करे ? यह तो आगे प्रसंग उपस्थित होने पर कहा जाएगा / लवणसमुद्र जम्बूसे द्विगुण (2 लाख ) प्रमाणवाला होनेसे उसमें चन्द्र-सूर्यकी संख्या भी जम्बूके चन्द्र-सूर्यकी संख्यासे द्विगुण अर्थात् चार चन्द्र और चार सूर्यकी हैं / तत्पश्चात् धातकीखण्डका क्षेत्र उससे भी द्विगुण (चार लाख योजन ) है / इस धातकीखण्डमें चन्द्र-सूर्यकी संख्या बारह-बारहकी हैं / . अब कालोदधि समुद्रसे अन्तिम स्वयंभूरमण तकके द्वीप-समुद्रोंमें चन्द्र-सूर्यकी संख्या जाननेका 'करण' बताते हैं। ___ जिन द्वीप-समुद्रोंके चन्द्र-सूर्य आदिकी संख्याका प्रमाण निकालना हो तब उसके पूर्वका जो द्वीप अथवा समुद्र हो, उसमें वर्तित चन्द्रों या सूर्योकी संख्याको तीन गुनी करें, और जिस द्वीपके चन्द्र और सूर्यकी संख्याको तीनगुनी की है उसमें उसके पूर्वके (जम्बूद्वीपसे ____ 181. देखिए–'समयावलिकापक्ष-मासयनसज्ञकः / ___ नृलोक एव कालस्य, वृत्तिर्नान्यत्र कुत्रचित् // 1 // ' . सं. 21 .
SR No.004267
Book TitleSangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Original Sutra AuthorChandrasuri
AuthorYashodevsuri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1984
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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