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________________ 152 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [ गाथा 72-77 _इस तरह कथित त्रिप्रत्यवतार द्वीप-समुद्रोंको सूर्यवरावभास समुद्र तक जानें, तत्पश्चात् 1. देवद्वीप, 2. नागद्वीप; 3. यक्षद्वीप, 4. भूतद्वीप, 5. स्वयंभूरमणद्वीप ( अन्तरालमें उन्हीं नामवाले समुद्र समझ लें) इस प्रकार १६पांच द्वीप-समुद्र हैं। ये द्वीप-समुद्र त्रिप्रत्यवतार नहीं हैं तथा इन नामवाले द्वीप-समुद्र असंख्यात भी नहीं हैं, इतना ही नहीं लेकिन असंख्यात द्वीप-समुद्रोंमें इन नामके दूसरे द्वीप या समुद्र भी नहीं हैं। इसकी यह विशेषता है। अन्तिम स्वयंभूरमणद्वीपके पश्चात् उस नामधारी स्वयंभूरमणसमुद्र आया है। इस समुद्रकी जगती के बाद जिसका अन्त नहीं है ऐसा अलोक आया है। इस तरह सर्व द्वीप-समुद्रोंका स्वरूप बताया। विशेष -- श्री दीवसागरपन्नति' आदिसे जान लें। [72-73-74-75 ] अवतरण-अब सकल द्वीप-समुद्राधिकारकी प्रशस्ति तक पहुंचे हुए ग्रन्थकार महर्षि प्रत्येक समुद्रवर्ती जल कैसे स्वादवाला है ? तथा उसमें रहे मत्स्यादिकका प्रमाण कितना है ? . यह बताते हैं वारूणिवर खीरवरो-घयवर लवणो य हुंति मिन्नरसा / कालो य पुक्खरोदहि, सयंभूरमणो य उदगरसा / / 76 // इक्खुरस सेसजलहि, लवणे कालोए चरिमि बहुमच्छा। पण-सग-दसजोयणसय-तणु कमा थोव सेसेसु / / 77 / / गाथार्थ-विशेषार्थवत् // 76-77 / / विशेषार्थ-पहला लवणसमुद्र, चौथा वारूणीवर समुद्र, पाँचवाँ खीरवर समुद्र और . छठा घृतवर, इतने समुद्रोका पानी अपने अपने नामोंके अनुसार गुणवाले-अर्थात् भिन्न भिन्न रसवाले हैं अर्थात् लवण-खारा अतः खारापानीवाला वह लवण समुद्र। वारुणीवर मदिरा श्रेष्ठ अर्थात् श्रेष्ठ मदिरा १६०(शराब) समान जल है, जिसमें वह खीरवर 17deg श्रेष्ठ 168. ' देवे नागे जक्खे, भूए य सयंभूरमणे य / इक्किके चेव माणियव्वे, तिपडो आरया नस्थि // 1 // ' [देवेन्द्र० नर० प्र० ] 169. चन्द्रहासादि उत्तम मदिरावाला परन्तु यहाँकी तरह बदबू फैलाते बदबूदार शराब जैसा नहीं। 170. यह जल दूध तुल्य है लेकिन दूधके समान नही है, दूध जैसा. श्वेत वर्णवाला है / चार सेर दूधमेंसे तीन सेर जलाकर, सेर दूध शेष रखकर उसमें शर्करा डालकर पीनेसे जैसी मिठास लभ्य हो वैसी मिठासवाला यह पानी है / तथा चक्रवर्ती जैसेकी गायके दूधसे भी अधिक मिठासवाला, यह पानी पीनेवालेको लगता है / तथापि इस दूधसे दूधपाक आदि नहीं होता / इस समुद्रके उत्तम जलको इन्द्रादिक देव परम तारक -देवाधिदेवोंके जन्मकल्याणक प्रसंग पर अभिषेकमें उपयोग लेते हैं /
SR No.004267
Book TitleSangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Original Sutra AuthorChandrasuri
AuthorYashodevsuri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1984
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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