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________________ पन्द्रह तिथियाँ कैसे होती है ] गाथा-६१ [ 133 प्रतिदिन चन्द्रमाका बिम्ब विशेष रूपमें खुला होता जाता है और तेजमें भी क्रमशः वृद्धि होती है। इस तरह राहुका आवरण खिसकता खिसकता सुदि १५३पूर्णिमाको चन्द्रमाके सकल बिम्बसे दूर हो जानेके कारण उसके 62 भागरूप संपूर्ण बिम्बको प्रत्यक्ष देखकर हम आनन्दकी किसी अनुपम ऊर्मियोंका अनुभव करते हैं / (चन्द्रमाका यह चार भाग प्रमाणअंश राहु जितने कालके लिए आवरित (आच्छादित) करे और वह जितना समय लोकमें प्रकट रूपमें रखे उतने समयको एक तिथि कहते हैं, राहु जिन चार चार भागोंको आवरित (आच्छादित) करता जाए वे सब तिथियाँ अनुक्रमसे कृष्णपक्षकी समझें और वही राहु पुनः आच्छादित भागोंमेंसे चार चार भागोंको नित्य प्रकट करता जाए तब वे प्रतिपदा आदि तिथियाँ शुक्लपक्षकी समझें।) अथवा चन्द्रविमानके १५४सोलह भाग करें और उनमें प्रतिदिवस राहु एक एक भागको आच्छादित करता जाए. तब एक एक भागको आच्छादित करे वह एक तिथि, इस तरह पन्द्रह भाग आच्छादित हो जाएँ तब अमावसका दिन आ जाए / सोलहवाँ भाग तो जगत् स्वभावसे आच्छादित होता ही नहीं है। अब वैसे शुक्लपक्षमें फिरसे एक एक भाग छूटता जाए ऐसा भी कहा है, अथवा तो जितने कालमें चन्द्रमाका सोलहवाँ भाग कम हो अथवा जितने कालमें उसकी वृद्धि हो, उस काल प्रमाणको एक तिथिप्रमाण कहा जाए। ऐसी तीस तिथियोंका एक चान्द्रमास होता है। इति तिथिप्रभवः / / - शंका-अमावसके दिन राहु चन्द्रविमानको आच्छादित करता है इसलिए पृथ्वीके ऊपर सर्वत्र अन्धकार छा जाता है ऐसा पहले कहा गया, परन्तु राहुसे चन्द्रका विमान लगभग दुगुना होनेसे अवशिष्ट विमानभागका तेज तो किसी भी विभागमें अवश्य प्रकट होना ही चाहिए ? . 153. 'सयलो वि ससी दिसइ राहुविमुक्को अ पुण्णिमादिअहे / .... सूरत्थमणे उदओ, पुग्वे पुग्विल्लजुत्तीए' // 1 // [ मंडल प्रकरण ] कोई शंका करे कि चार चार भाग खुला करनेके हिसाबसे आठ भाग प्रकट हों तब तो सुदि दूज कहलाएं यह सच है, परन्तु अनेक बार जब प्रतिपदाके दिन ही दूजका उदय होता है तो इसके बारेमें क्या ? साथ ही दूसरी तिथियोंकी होती घट-बढ़ तथा तिथिमान अमुक घड़ी तकके होते हैं, तो फिर चार चार भाग प्रमाणका नित्यावरण क्रम आदि कथन किस प्रकार संगत हो ? तो इसके समाधानके लिए जिज्ञासुओंको 'काललोकप्रकाश' आदि ग्रन्थ देखने चाहिए / यहाँ तो इतना विषय भी प्रासंगिक अभ्यासकोंके लिये उपयोगी होनेके कारण ही वर्णित किया गया है / 154. देखिए–'सोलसभागे काऊण, उडुवई हायएत्थ पन्नरसं / / तत्तियमित्ते भागे, पुणोवि परिवड्ढए जोहा // 1 // '
SR No.004267
Book TitleSangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Original Sutra AuthorChandrasuri
AuthorYashodevsuri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1984
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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