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________________ 124 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [ गाथा-५६ शाश्वती नदियाँ, पद्मद्रह आदि शाश्वतद्रह, सरोवर, पुष्करावर्त्तादि 141 स्वाभाविक मेघ, मेघके अभावमें मेघकी स्वाभाविक गर्जनाएँ, बिजलियाँ, १४२बादरअग्नि, तीर्थंकर, चक्रवर्ती, वासुदेव, बलदेव आदि उत्तमपुरुष तथा किसी भी मनुष्यका जन्म अथवा किसी भी मनुष्यका मरण और १४३समय-आवलिका-मुहूर्त-दिवस-मास-अयन-वर्ष-युग-पत्योपम-सागरोपमअवसर्पिणी-उत्सर्पिणी आदि सर्व प्रकारका काल आदि पदार्थ अढाईद्वीपमें ही हैं, परन्तु अढाईद्वीपके बाहर होते नहीं हैं। तदुपरान्त अढाईद्वीपके बाहर भरतादि समान क्षेत्र, वर्षधर सदृश पर्वत, घर, गाँव, नगर, चतुर्विध संघ, खाँइयाँ, निधियाँ, चन्द्र-सूर्यादि ज्योतिषी विमानोंका भ्रमण, ग्रहण नहीं हैं। जिससे चन्द्रसूर्यके परिवेष (मण्डल) भी नहीं हैं, इन्द्रधनुष, गांधर्व नगरादि [आकाशमें होते उत्पातसूचक चिह्न ] नहीं हैं, परंतु समुद्रमें द्वीप हैं और किसी-किसी द्वीप-समुद्रमें शाश्वता पर्वत भी हैं, परंतु अल्प होनेसे यहाँ विवक्षा की नहीं है, और ( अढाईद्वीपके बाहर ) द्वीप बहुत होनेसे गाथामें द्वीपोंका अभाव कहा नहीं है। जिसके लिए लघुक्षेत्रसमासमें कहा है कि "णइ-दह-घण-थणि-यागणि-जिणाइ, णरजम्म-मरणकालाई / पणयाललक्खजोयण-णरखित्तं मुत्तु णो पु(प)रओ // 256 // " इस तरह ऊपर कहे गए भावोंवाले 45 लाख योजनके मनुष्यक्षेत्रमें विद्यमान चर सर्वथा न हों ऐसा भी नहीं; परन्तु शास्त्रमें जो नदी, सरोवर आदिका निषेध है, वे अढाईद्वीपमें जो व्यवस्थापूर्वक शाश्वत नदियाँ, सरोवर आदि कहे हैं वैसे ( वनवेदिका इत्यादि सहित .) व्यवस्थापूर्वकके शाश्वत नदी, सरोवर न हों और अगर सर्वथा नदी, सरोवरादिका अभाव मानें तो द्वीपका स्वरूप. ही अव्यवहृत होता है, इतना ही नहीं, परन्तु वहाँके निवासी पशु-पक्षी पानी कहां पीएँ ? और सर्वथा जलाशयोंके अभावमें द्वीन्द्रियादि विकलेन्द्रियों और सम्मूछिम पंचेन्द्रियोंका भी अभाव होता है, इसलिए अंशाश्वत सरोवर, पानीके झरने और छोटी छोटी नदियों भी हों। तथा असंख्यातवें द्वीपमें उत्तरदिशामें असंख्य योजनका 'मानसरोवर' शाश्वत है, परन्तु वह अल्प ( केवल एक ही) होनेसे अविवक्षित है। 141. यहाँ -- स्वाभाविक ' कहनेका कारण यह है कि अढ़ाईद्वीपके बाहर असुरादि देवोंसे रचित ( विकुर्वित ) मेघगर्जना और बिजलियाँ तथा बरसात ये सब हो सकते हैं / 142. 'बादर' कहनेका कारण यह है कि सूक्ष्म अग्नि तो चौदह राजलोकमें सर्वत्र व्याप्त होनेसे अढाईद्वीपके बाहर भी होती है। 143. समय, आवलि आदि व्यावहारिक काल चन्द्र-सूर्य के भ्रमणसे है और वहाँ चन्द्र-सूर्यादि सत्र ज्योतिश्चक्र स्थिर हैं इसलिए व्यावहारिक काल नहीं है परन्तु वर्त्तनालक्षण वाला निश्चयकाल तो है ही /
SR No.004267
Book TitleSangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Original Sutra AuthorChandrasuri
AuthorYashodevsuri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1984
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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