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________________ ज्योतिषीनिकाय-वर्णन प्रारंभ ] गाथा-४९ [113 4. प्रत्येक इन्द्रकी तीन प्रकारकी पर्षदाएँ होती हैं। तीनोंमें जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट आयुष्य संख्यावाली देव-देवियाँ होती हैं / यह पर्षदा-अग्रमहिषी लोकपालादि देवोंमें भी अपने-अपने प्रमाणाश्रयी यथायोग्य होती है / 5. अपनी इस पृथ्वीके नीचे एक अद्भुत जीवसृष्टि विद्यमान है। इस सृष्टिमें नरकगतिवर्ती नारकजीव तथा चार प्रकारके देवों में भवनपति और व्यन्तर इन दो प्रकारके देव और भवनपतिके उप-प्रकारके रूपमें परमाधामी भी नीचे ही रहते हैं। आज जगतमें मन्त्रों और यन्त्रोंकी आराधना और उपासनाएँ चल रही हैं और उनमें सहायक स्वरूप जो जो देव-देवियाँ होती हैं, वे प्रायः इन दोनों निकायोंके होते हैं / यक्ष-यक्षिणियाँ, घंटाकर्ण, माणिभद्र, क्षेत्रपाल, भैरव, सरस्वती, लक्ष्मी, चक्रेश्वरी, विद्यादेवियाँ आदि व्यन्तर निकायके ही हैं, सिर्फ पद्मावतीजी भवनपतिकी है / तृतीय ज्योतिषी-निकायवर्णनम् / अवतरण-पहले भवनपति तथा व्यन्तरनिकायका यथायोग्य दिग्दर्शन कराया / अब तीसरे ज्योतिषीनिकायके स्वरूपका वर्णन किया जाता है। इन ज्योतिषी देवोंका स्थान ऊर्ध्व, अधो और तिर्यक् इस प्रकार तीनों लोकके विभागसे विभाजित त्रासनाडीके तिर्यक्लोकमें है। यह तिर्यक्लोक ऊँचाइमें 1800 योजन प्रमाण गिना जाता है और उसकी गिनती समभूतलासे अधःस्थानमें 900 योजन और उसी समभूतल भागसे ऊर्ध्वस्थानमें 900 योजन इस तरह की जाती है। इसलिये ज्योतिषी देव तिर्छालोकवासी कहलाते हैं अब ये ज्योतिषी देव कहाँ और यहाँसे कितने योजन दूर हैं ? यह दिखानेके लिए प्रन्थकार महर्षि ' समभूतलाउ' इस गाथाकी रचना करते हैं / समभूतलाउ अहिं, दसूणजोयणसएहिं आरम्भ / उवरि दसुत्तरजोयण-सयंमि चिटुंति जोइसिया // 49 // . गाथार्थ-समभूतला पृथ्वीसे दस कम ऐसे आठसौ योजन ( सातसौ नब्बे योजन )से आरंभ करके, ऊपर ऊर्ध्व आकाशमें एकसौ दस योजन तक ज्योतिषी देव रहते हैं। // 49 / / विशेषार्थ-ज्योतिषी अर्थात् 'अत्यन्तप्रकाशित्वाज्ज्योतिः शब्दाभिधेयानि विमानानि तेषु भवा ये देवास्ते ज्योतिष्काः // '
SR No.004267
Book TitleSangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Original Sutra AuthorChandrasuri
AuthorYashodevsuri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1984
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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