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________________ 112 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [गाथा 48 हरएक देवलोकमें बताई गई पर्षदाका व्यवहार समझ लें / उनमें जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट आयुष्यवाले तथा तीनों प्रकारकी संख्यावाले देव होते हैं। और इस चमरेन्द्रादिकी राजधानीका वर्णन 'भगवती' आदि सूत्रमें तथा क्षेत्रलोकप्रकाश 'मेंसे देख लें। यह चमरेन्द्र देवदेवियों के परिवारसे समग्र जम्बूद्वीप तथा तिर्छा असंख्याता द्वीप समुद्रोंको भी भरनेकों समर्थ है / अरे! यह सामर्थ्य तो उसके सामानिक तथा त्रायस्त्रिंशक देवों में भी रहता है। जाव य जम्बूदीवो जाव य चमरस्स चमरचंचाओ ! असुरेहिं असुरकन्नाहिं अस्थि विसओ भरेओसे // 1 // [ देवेन्द्र० स्तव ] कामक्रीडा विधिमें चतुर ऐसे ये इन्द्र लावण्य और सौन्दर्ययुक्त देवांगनाओंके साथ भोगसुखोंको भोगते हुए आनन्दमें विहरते हैं। द्वितीय व्यन्तरनिकायाश्रयी, परिशिष्ट नं. 2 1. इन व्यन्तरोंकी भी असंख्याती विशाल नगरियाँ अढ़ाई द्वीपके बाहर. विद्यमान हैं। जिनका विस्तृत वर्णन जीवाभिगमादि आगमग्रन्थोंसे जान लें / 2. व्यन्तरोंके नगरोंकी चारों ओर वल्याकारमें रक्षणके लिए गहरी खाई और सुन्दर प्राकार-परकोटा शोभायमान है, उसके कोठे पर तोपें आदि स्थापित हैं; मजबूत किला शत्रुओंसे दुष्प्रवेश्य होता है / ये नगर जगमगाते, देदीप्यमान और महान रत्नमय तोरणोंसे शोभायमान दरवाजोंसे युक्त हैं और दण्डधारी देवकिंकर नगरका रक्षण करनेमें दिन-रात सज्ज रहते हैं। साथ ही इन नगरोंमें पंचरंगी पुष्पोंकी महासुगन्धसे और अगरु तथा किंदरुदशांगादि श्रेष्ठ धूपादिकी सुवासोंसे सुगन्ध ही सुगन्ध व्याप्त रहती है। ये देव अतिस्वरूपशाली स्वभावसे तथा दिखावेसे सौम्य, अंगोपांग आदि रत्नमय अलंकारोंसे विभूपित, गांधर्वोके गीतोंमें प्रीतिवाले और कुतूहल देखनेकी प्रबल इच्छावाले होते हैं। इन देवोंको क्रीडा, हास्य, नृत्यादि पर अत्यन्त आसक्ति होनेसे ये अनवस्थितरूपसे जहाँ-तहाँ भटकते रहते हैं और कुतूहलके लिये शरीरप्रवेश आदि कार्यो द्वारा अन्य व्यक्तियोंको पीड़ा भी पहुंचाते हैं। ... मनुष्यलोकमें भूत, पिशाच, राक्षसादि जो कहे जाते हैं, वे इन व्यन्तरनिकायके उस-उस निकायगत व्यन्तर ही होते हैं। ये देव विशेषतया जीर्णस्थानों (गृहमन्दिरादि )में निर्जन स्थान हो जानेसे निवास करके रहते हैं। अतः वे उस स्थानवी निवास करनेवाले लोगोंको या अन्य लोगोंको पूर्वीय रागसे या द्वेषसे कई बार महाव्यथा उत्पन्न करते हैं / साथ ही इन लोकोंमें प्रायः क्रीड़ा और विनोदके लिये आते उन देवोंका विशेष समय क्रीडा, हास्यादिमें निर्गमन हो जानेसे वे अपने मूलस्थानोंको भी भूल जाते हैं, जिससे वे जहाँ-तहाँ जिस-किसी स्थानमें प्रवेश करके रहते हैं। ये देव विशेषतया स्वेच्छाचारी होते हैं।
SR No.004267
Book TitleSangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Original Sutra AuthorChandrasuri
AuthorYashodevsuri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1984
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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