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________________ 28 : अंग साहित्य : मनन और मीमांसा मट्टियाहि स ण्हाति" अर्थात् वह चौसठ (बार) मिट्टी से स्नान करता है। कुछ वैदिकों की मान्यता है कि भिन्न - भिन्न अंगों पर कुल मिलाकर चौंसठ बार मिट्टी लगाने पर ही पवित्र हुआ जा सकता है। मनुस्मृति (अ.5, श्लो 135-145) में बाह्य शौच अर्थात् शरीर शुद्धि व पात्र आदि की शुद्धि के विषय में विस्तृत विधान है उसमें विभिन्न क्रियाओं के बाद शुद्धि के लिए किस - किस अंग पर कितनी - कितनी. बार मिट्टी व पानी का प्रयोग करना चाहिए, इसका स्पष्ट उल्लेख है। इस विधान मे गृहस्थ, ब्रह्मचारी, वनवासी एवं यति का अलग-अलग- विचार किया गया है। अर्थात् इनकी अपेक्षा से मिट्टी व पानी के प्रयोग की संख्या में विभिन्नता बताई गई है। भगवान् महावीर ने समाज को आन्तरिक शुद्धि की ओर मोड़ने के लिए कहा है कि इसप्रकार की बाह्य शुद्धि हिंसा को बढ़ाने का ही एक साधन है। इससे पृथ्वी, जल, अग्नि, वनस्पति तथा वायु के जीवों का कचूमर निकल जाता है। यह घोर हिंसा की जननी है। इससे अनेक अनर्थ उत्पन्न होते हैं। श्रमण व ब्राह्मण को सरल बनना चाहिए, निष्कपट होना चाहिए, पृथ्वी आदि के जीवों का हमन नहीं करना चाहिए। पृथ्वी आदि प्राणरूप है। इसमें आगन्तुक जीव भी रहते हैं। अतः शौच के निमित्त इनका उपयोग करने से इनकी तथा इनमें रहने वाले प्राणियों की हिंसा होती है। अतः यह प्रवृत्ति शस्त्ररूप है। आंतरिक शुद्धि के अभिलाषियों को इसका ज्ञान होना चाहिए। यही भगवान् महावीर के शस्त्रपरिज्ञा प्रवचन का सार है। रूप, रस, गन्ध, शब्द व स्पर्श अज्ञानियों के लिए आवर्तरूप है, ऐसा समझ कर विवेकी को इनमें मुच्छित नहीं होना चाहिए। यदि प्रमाद के कारण पहले इनकी ओर झुकाव रहा हो तो ऐसा निश्चय करना चाहिए कि अब मैं इनसे बचूंगा- इनमें नहीं फतूंगा - पूर्ववत् आचरण नहीं करूंगा। रूपादि में लोलूप व्यक्ति विविध प्रकार की हिंसा करते दिखाई देते हैं। कुछ लोग प्राणियों का वध कर उन्हें पूरा का पूरा पकाते हैं। कुछ चमड़ी के लिए उन्हें मारते हैं। कुछ केवल मांस, रक्त, पित्त, चरबी, पंख, पूंछ, बाल, सींग, दाँत, नख, अथवा हड्डी के लिए उनका वध करते है। कुछ शिकार का शौक पूरा करने के लिए प्राणियों का वध करते है। इसप्रकार कुछ लोग अपने किसी न किसी स्वार्थ के लिए जीवों का क्रूरतापूर्वक नाश करते हैं तो कुछ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004256
Book TitleAng Sahitya Manan aur Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Suresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2002
Total Pages338
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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