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________________ 8: अंग साहित्य : मनन और मीमांसा महापरिण्णा का क्रम आठवाँ तथा उवहाणसुअ का क्रम नववाँ है। आचारांग -नियुक्ति में धुअ के बाद महापरिण्णा, उसके बाद विमोह व उसके बाद उवहाणसुअ का निर्देश है। इस प्रकार अध्ययनक्रम में कुछ अन्तर होते हुए भी संख्या की दृष्टि से सब एकमत हैं। इन नवों अध्ययनों का एक सामान्य नाम नवब्रह्मचर्य भी है। यहाँ ब्रह्मचर्य शब्द व्यापक अर्थ - संयम के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। आचारांग की उपलब्ध वाचना में "छठा धूअ, सातवाँ महापरिण्णा, आठवाँ विमोह एवं नववाँ उवहाणसुअ"- इस प्रकार का क्रम है। नियुक्तिकार ने तथा वृत्तिकार शीलोक ने भी यही क्रम स्वीकार किया है। प्रस्तुत चर्चा में इसी क्रम का अनुसरण किया जाएगा। उपर्युक्त नौ अध्ययनों में से प्रथम अध्ययन का नाम शस्त्रपरिज्ञा है। इसमें कुल मिलाकर सात उद्देशक-प्रकरण हैं। नियुक्तिकार ने इन उद्देशकों का विषयक्रम निरूपण करते हुए बताया है कि प्रथम उद्देशक में जीव के अस्तित्व का निरूपण है तथा आगे के छः उद्देशकों में पृथ्वीकाय आदि छ: जीवनिकायों के आरंभ - समारंभ की चर्चा है। इन प्रकरणों में शस्त्र शब्द का अनेक बार प्रयोग किया गया है एवं लौकिक शस्त्र की अपेक्षा सर्वथा भिन्न प्रकार के शस्त्र के अभिधेय का स्पष्ट परिज्ञान कराया गया है। अतः शब्दार्थ की दृष्टि से भी इस अध्ययन का शस्त्रपरिज्ञा नाम सार्थक है। द्वितीय अध्ययन का नाम लोकविजय है। इसमें कुल छः उद्देशक है। कुछ स्थानों पर "गढिए लोए, लोए पव्वहिए, लोगविपस्सी, विइत्ता लोगं, वंता लोगसन्नं लोगस्स कम्मसमारंभा" इस प्रकार के वाक्यों में "लोक' शब्द का प्रयोग तो मिलता है किन्तु सारे अध्ययन में कहीं भी "विजय' शब्द का प्रयोग नहीं दिखाई देता फिर भी समग्र अध्ययन में लोकविजय का ही उपदेश है, ऐसा कहा जा सकता है। यहाँ विजय का अर्थ लोकप्रसिद्ध जीत ही है। लोक पर विजय प्राप्त करना अर्थात् संसार के मूल कारण रूप क्रोध, मान, माया व लोभ- इन चार कषायों को जीतना, यही इस अध्ययन का सार है। नियुक्तिकार ने इस अध्ययन के छहों उद्देशकों का जो विषयानुक्रम बताया है वह उसी रूप मे उपलब्ध है। वृत्तिकार ने भी उसी का अनुसरण किया है। इस अध्ययन का मुख्य उद्देश्य वैराग्य बढ़ाना, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004256
Book TitleAng Sahitya Manan aur Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Suresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2002
Total Pages338
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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