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________________ दुष्कृत गर्दा परमात्मा बनने की कला "जिन की आज्ञा का पालन तो शिवसुन्दरी का संकेत है।' उनकी प्रतिपति वाला बनें; स्वीकार, भक्ति, बहुमान और समर्पितता वाला बनूँ, जिससे उनकी आज्ञा को अतिचार रहित सम्पूर्ण पालन कर भवपार करने वाला बनूं। निरतिचार आज्ञापालन की पराकाष्ठा में मैं पहुँचूँ। इसलिए ये मेरी बहुमानपूर्वक प्रार्थना है। सेवा भक्ति के बिना आज्ञा की योग्यता नहीं मिलती है। जैसे आज्ञा में रमण करने की सम्यग् आत्म-दशा, आज्ञा के सही स्वीकार बिना समर्पितता होना अशक्य है; उसी प्रकार स्वीकार समर्पितता के बिना समर्पितता होना अशक्य है। स्वीकार समर्पितता के बिना सम्पूर्ण आज्ञा का पालन करके अंशमात्र भी भूल या दोष न लगाकर भव पार उतरने का कार्य अशक्य है। इसलिए ऐसा क्रम रखा गया कि सेवा-भक्ति की मुझे योग्यता प्राप्त हो, आज्ञा में रमण करने की योग्यता प्राप्त हो, मुझे आज्ञा पालन का अवसर प्राप्त हो, और मैं आज्ञापालन को दोष लगाए बिना, अखण्ड रूप से चलाकर पराकाष्ठा की आज्ञा पालन तक सीधे पहुँच सकूँ। - यहाँ यह सूचित करते हैं कि 'देव गुरु संयोग मिलने पर पहले कर्त्तव्य योग्य बनकर उनकी सेवा करना है।' शय्यंभव, भद्रबाहु, हरिभद्र इत्यादि ब्राह्मण चारित्र ग्रहणकर पहले देव-गुरु की सेवा में लग गये। जिन आज्ञा, जिन वचन के योग्य बनकर उसी में रमण कर प्रभावक आचार्य बने। वराहमिहिर, कुलवालक, बालचन्द्र इत्यादि मुनियों ने भूल की तो इनका जीवन धूल बन गया। इसलिए योग्य बनकर सेवा करनी चाहिए। हे प्रातः स्मरणीय परमात्मा! मैं कितनों को याद करूं? सामान्य रूप से कहूँ तो इस विश्व में मोक्ष मार्ग में रहे हुए अथवा मिथ्यात्त्वरूपी उन्मार्ग में रहे. सब जीवों के प्रति अथवा मोक्षमार्ग के साधन रूप पुस्तकादि उपकरणों के प्रति अथवा उन्मार्ग के साधनरूप तलवार आदि अधिकरणों के प्रति अविधि से परिभोग करने में जो कोई विपरीत आचरण किया हो, नहीं करने योग्य तथा नहीं चाहने योग्य ऐसा पापानुबन्धी पाप आचरण किया हो; फिर वह पाप इस जन्म में या जन्मांतर में किया हो, वह पाप सूक्ष्म हो या स्थूल हो; मन से, वचन से, काया से, राग से, द्वेष से, मोह से किया हो, करवाया हो, अनुमोदन किया हो; वह सब अवश्य निन्दा करने योग्य है। दुष्कृत स्वरूप है। छोड़ने जैसा है। ये बातें मैंने एकमात्र मित्र ऐसे मेरे गुरु भगवन्त के वचनों से सुनी हैं और ये बातें 173 For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.004255
Book TitleParmatma Banne ki Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyranjanashreeji
PublisherParshwamani Tirth
Publication Year2000
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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