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________________ प्रकरण ४ : सामान्य साध्वाचार [२८५ विशुद्धता के लिए आवश्यक है। मन, वचन और काय-सम्बन्धी सभी अशुभात्मक प्रवृत्तियों को रोकना 'गुप्ति' है।' शुभात्मक प्रवृत्ति में सावधानीपूर्वक प्रवृत्ति करना 'समिति' है ।२ ग्रन्थ में इन दोनों का सम्मिलित नाम 'प्रवचनमाता' मिलता है। इन्हें 'प्रवचनमाता' क्यों कहा जाता है, यह विचारणीय है। प्रवचन शब्द का अर्थ है -जिनदेव-प्रणीत सिद्धान्त । 'माता' शब्द का अर्थ है-माता की तरह संरक्षक एवं उत्पादक । जिनदेवप्रणीत सिद्धान्त (प्रवचन ) १२ अंग ग्रन्थों में समाविष्ट है। गुप्ति और समिति का सम्यकरूप से पालन करने वाला साधु ही गुरु-परम्परा से प्राप्त द्वादशाङ्गरूप समस्त शास्त्रज्ञान (प्रवचन) को सुरक्षित रख सकता है। अतः ग्रन्थ में गुप्ति और समिति के समुच्चय को 'प्रवचनमाता' कहा गया है अथवा समस्त द्वादशाङ्ग गुप्ति और समितियों में समाविष्ट होने से 'प्रवचनमाता' शब्द सार्थक है। 3 निवृत्ति की अपेक्षा प्रवृत्ति की प्रधानता है क्योंकि सावधानीपूर्वक शुभाचार में प्रवृत्ति करने पर अशुभाचार से १. गुत्ती नियत्तणे. कुत्ता असुभत्त्थेसु सव्वसो। -उ० २४.२६. सम्यग्योगनिग्रहो गुप्तिः। -त० सू० ६.४. २. एयाओ पंच समिईओ चरणस्स य पवत्तणो । -उ० २४.२६. समिति-सम-एकीभावेन, इति-प्रवृत्तिः समितिः = शोभन काग्रपरिणामचेष्टेत्यर्थः । -श्रमणसूत्र, पृ० १५०. ३. अठ्ठ पवयणमायाओ समिई गुत्ती तहेव य । पंचेव य समिईओ तओगुत्तीउ आहिया ।। इरियाभासेसणादाणे उच्चारे समिई इय । मणगुत्ती वयगुत्ती कायगुत्ती य अट्ठमा ।। एयाओ अट्ठ समिईओ समासेण वियाहिया । दुवालसंगं जिणक्खायं मायं जत्थ उ पवयणं ॥ -उ० २४.१-३, तथा देखिए-उ० २६.११. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004252
Book TitleUttaradhyayan Sutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherSohanlal Jaindharm Pracharak Samiti
Publication Year1970
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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