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________________ ॐ ७४ ® कर्मविज्ञान : भाग ८ * तात्त्विक चिन्तन भेदविज्ञान और सक्रिय पुरुषार्थ तथा आत्मा और अनात्मा, पौद्गलिक-अपौद्गलिक के विषय में शास्त्रों से, वीतराग पुरुषों के वचनों से, शास्त्रज्ञ महान् आत्माओं के उपदेश से या स्वाध्याय से भी इनके यथातथ्य का ज्ञान-भान हो जाता है। स्वानुभव भी साक्षीभूत होता है। इन सब कारणों से अध्यात्मयोगी सदैव ज्ञाता-द्रष्टा बनकर, राग-द्वेष से मुक्त होकर रहने का सतत अभ्यासी होता है। वह वर्तमान में जीता है, वीतरागभाव की ओर उसकी गति-प्रगति होती है। उसे अपने और पदार्थ के, व्यक्ति और परिस्थिति के अपनी आत्मा से भिन्न होने का स्पष्ट भान रहता है। पदार्थों, व्यक्तियों या परिस्थितियों के संयोग-वियोग में वह मध्यस्थ रहता है। वह न इष्ट-संयोग-अनिष्ट-वियोग में खुश । होता है और न ही इष्ट-वियोग–अनिष्ट-संयोग में नाखुश होता है। अहंत्व-ममत्व से दूर रहता है। अध्यात्मयोगी इसके अभ्यास का प्रारम्भ कहाँ से करे ? आचार्य हरिभद्र ने अध्यात्मयोगी के लिए प्रारम्भिक भूमिका में सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान तथा सम्यकचारित्र एवं बाह्याभ्यन्तर तप में पुरुषार्थ करने का संकेत है। साथ ही मैत्री आदि चार भावनाओं द्वारा विभावों से होने वाले कर्मों के आसवों का निरोध करने का अभ्यास बताया है। आशय यह है कि प्रत्येक प्राणी को आत्मवत् भावना से देखने वाला अध्यात्मयोगी साधक मैत्रीभावना से सुखी जीवों के प्रति होने वाली ईर्ष्या का त्याग करता है, करुणा से दीन-दुःखी जीवों के प्रति उपेक्षा नहीं करता, मुदिताभावना से पुण्यशाली या गुणी जीवों के प्रति उसका द्वेषभाव मिट जाता है, उपेक्षा (माध्यस्थ्य) भावना से वह पापी, विपरीत वृत्ति-प्रवृत्ति वाले जीवों के प्रति राग और द्वेष दोनों को हटा लेता है। मतलब यह है कि इन चारों भावनाओं से अध्यात्मयोगी में ईर्ष्या का नाश, दया का संचार और राग-द्वेष से निवृत्ति सम्पन्न होती है। अध्यात्म के साथ योग का उपाय उपाध्याय यशोविजय जी ने ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार और वीर्याचार; इन पाँचों में निहित होना बताया है।' अध्यात्मयोग का ज्ञान क्यों आवश्यक है ? ___ संसार में जड़ और चेतन ये दो तत्त्व प्रमुख हैं। इन दोनों तत्त्वों को, इनके स्वरूप को भलीभाँति जाने बिना अध्यात्म तत्त्वज्ञान अधूरा रह जाता है। उनका १. (क) 'जैनागमों में अष्टांगयोग' से भाव ग्रहण, पृ. १५ (ख) सुखीÓ दुःखितोपेक्षां पुण्य द्वेषमधर्मिषु। रागद्वेषौ त्यजेन्नेतां लब्ध्वाऽध्यात्म समाचेरत्॥ (ग) 'अध्यात्म उपनिषद्, अ. १, श्लो. २ -योगबिन्दु ७ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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