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________________ ॐ मोक्ष से जोड़ने वाले : पंचविध योग * ७३ * पौद्गलिक हैं, हमारे समक्ष दृश्यमान समस्त रूपी पदार्थ पौद्गलिक हैं, फिर मुमुक्षु के पास ऐसा कौन-सा आधार या प्रमाण है कि जिसको लेकर वह कह सके, अनुभव या चिन्तन कर सके कि मैं प्रत्येक प्रवृत्ति या क्रिया करते समय आत्मा से ही उसे जोड़ता हूँ, उसी का आलम्बन लेता हूँ? समाधान : आत्मा के शुद्ध निर्मल ज्ञान के प्रकाश में ज्ञाता-द्रष्टा बनकर रहूँ इसका समाधान यह है कि आत्मा का मूल गुण ज्ञान है। वह आत्मा के साथ अभिन्नतापूर्वक प्रतिसमय रहता है, उस पर ज्ञानावरणीय कर्म का आवरण तथा दर्शनमोह-चारित्रमोह का आवरण चाहे जितना प्रगाढ़ हो, जब आत्मा मिथ्यात्व एवं अज्ञानान्धकार का आवरण छिन्न-भिन्न कर चतुर्थ गुणस्थान में आता है और वहाँ से ज्यों-ज्यों आगे बढ़ता है, त्यों-त्यों अज्ञान और मोह की गाँठें खुलती जाती हैं, सम्यग्ज्ञान का प्रकाश उत्तरोत्तर बढ़ता जाता है, चारित्रमोह की गाँठ शिथिल होने से सम्यक्चारित्र की भी शक्ति उत्तरोत्तर बढ़ती जाती है, तब अध्यात्मयोग के साधक की अन्तर्दृष्टि खुल जाती है। वह इस तथ्य को हृदयंगम कर लेता है कि मेरी जितनी भी प्रवृत्ति, चर्या या साधना है, वह सब आत्मा के विकास के लिए, आत्मा को आवरणों से, कर्मबन्ध से, मोहावरण से मुक्त करने के लिए है। शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, चित्त, अंगोपांग या आत्मा से भिन्न जितने भी पदार्थ हैं, वे सब आत्मा के विकास में, आध्यात्मिक जागरण में सहयोग या आत्म-हित में सदुपयोग के लिए हैं। ... कषायादि या रागादि विभाव आत्मा के स्वभाव नहीं हैं, आत्मा का स्वभाव निष्कषाय, निर्मोह एवं वीतरागता है, तब फिर मैं शरीरादि पौद्गलिक पदार्थों का उपयोग करूँ उस समय केवल ज्ञाता-द्रष्टा बनकर रहूँ, इनमें मैं और मेरापन तथा इन पर, इन्द्रियों के विषयों पर मन के पर-भावों या विभावों से जुड़ने के अवसर पर आसक्ति, राग, मोह न रखू। व्यक्तियों, परिस्थितियों, विषयों या पदार्थों के प्रति अच्छे-बुरे, मनोज्ञ-अमनोज्ञ, प्रिय-अप्रिय, अनुकूल-प्रतिकूल आदि की छाप न लगाऊँ, मन को उन पदार्थों से न जोडूं। मन आदि को आत्मा (शुद्ध आत्मा) के साथ जोइँ।' साथ ही यह तत्त्वचिन्तन भी करूँ-मैं न शरीर हूँ, न मन हूँ, न इन्द्रिय हूँ; शरीरादि मूर्त हैं, नाशवान् हैं, अचेतन (अजीव) हैं, जबकि आत्मा अमूर्त है, सचेतन है, नित्य है, ज्ञानवान् है। पर-पदार्थ जितने भी हैं, वे भी नाशवान हैं, मृत हैं, अचेतन हैं, दूसरे व्यक्ति भी, परिस्थिति भी क्षणभंगुर हैं, मेरी नहीं है, यदि ये पदार्थ, परिस्थिति या व्यक्ति मेरे होते तो मेरे साथ सदैव रहते, इनका नाश या परिवर्तन न होता। परन्तु ऐसा नहीं होता, शरीरादि या पदार्थ, व्यक्ति, सभी यहीं रह जाते हैं, आत्मा इन्हें छोड़कर चली जाती है। इस प्रकार अध्यात्मयोगी का Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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