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________________ @ समतायोग का मार्ग : मोक्ष की मंजिल @ ३३ : निःस्पृहभाव से इनका उपयोग करता है। वह उन साधनों को स्व-पर-कल्याणसाधना या आत्म-विकास की साधना में लगाता है।' भौतिक सुख पराधीन है, आत्मिक-सुख स्वाधीन है समतायोगी की दृष्टि में आत्मिक-सुख और दुःख की परिभाषा ही दूसरी है। उसकी दृष्टि में भौतिक साधन, धन, सुख-सुविधाओं की प्रचुरता आदि पराश्रित एवं पगधीन होने से दुःखरूप हैं। भौतिक सुखलिप्सु की दृष्टि में अपने मनोऽनुकूल वस्तु, आकांक्षानुसार अमुक परिस्थिति या मनोज्ञ विषय मिलें तो सुख, नहीं तो दुःख है। परन्तु सभी वस्तुएँ या परिस्थितियाँ मनोऽनुकूल मिलें ही, ऐसा सम्भव नहीं। वस्तु, परिस्थिति या विषय अनुकूल मिलने पर भी इन्द्रियाँ क्षीण, मन्द या नष्ट हो गईं, मन भी शोक और तनाव से ग्रस्त हुआ, शरीर रुग्ण हुआ या किसी ने अपमानित कर दिया, मन प्रतिकूल या मन्द रहा तो भी दुः, का दुःख ही रहा। अनुकूल वस्तु भी कम मिली या दूसरे को अधिक मिली तो भी दुःख होगा। वस्तु यथेष्ट मिलने पर भी उसका वियोग हो गया, नष्ट हो गई या किसी ने छीन ली, चुरा ली या खो गई तो भी दुःख होगा। इस प्रकार पदार्थनिष्ठ या पराश्रित भौतिक सुख एक प्रकार से दुःखरूप ही है, ‘पराधीन सपनेहु सुख नाही', गोस्वामी तुलसीदास जी की यह उक्ति अक्षरशः सत्य है। इसके विपरीत आत्मिक-सख स्वाधीन-स्वाश्रित है; अपने पास ही है। वस्तु न हो, कम हो, मनोऽनुकूल न मिले, नष्ट हो जाए तो भी आत्मिक-सुख के अन्वेषक समतायोगी को कोई दुःख नहीं होता। वह अपनी इच्छा से संवर और निर्जरा की भावना से वस्तु का त्याग कर देता है, परिस्थिति प्रतिकूल हो तो भी अपने आप को वह एडजस्ट कर लेता है, अपना सन्तुलन नहीं बिगाड़ता। जो स्वाधीन है, स्वेच्छाकृत है, उसमें किसी भी साधन की अपेक्षा नहीं रहती। आत्मिक-सुख की उपलब्धि के लिए अमुक परिस्थितियों, अमुक विषयों, अमुक इन्द्रियों अथवा अमुक साधनों आदि की भी अपेक्षा अथवा आवश्यकता नहीं रहती। आत्मिक-सुख-दुःख की परिभाषा एक आचार्य ने इस प्रकार की है “सर्व परवशं दुःखं, सर्वमात्मवशं सुखम्। एतद् विद्यात समासेन लक्षणं सुख-दुःखयोः॥" -जो पर-वश (पराश्रित या पराधीन) है, वह सब दुःख है और जो स्व-वश अर्थात् स्वाधीन या स्वाश्रित है, वह सब सुख है। यही संक्षेप में सुख और दुःख का लक्षण समझना चाहिए। १. 'समतायोग' से भाव ग्रहण, पृ. ११४ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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