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________________ * ३२ 8 कर्मविज्ञान : भाग ८ 0 इसमें डरने की कोई बात ही नहीं है। ज्ञानी और सम्यग्दृष्टि के लिए जीवन-मरण समान है। जन्म जैसे महोत्सव है, वैसे मरण भी उनके लिए ‘मृत्यु-महोत्सव' है। उन्होंने अधिक जीने की इच्छा की तरह शीघ्र मर जाने की इच्छा को भी अध्यात्म-दोष बताया है। यह चित्त की विषमता है, जो समतायोग के आनन्द से मनुष्य को वंचित कर देती है।' अन्य द्वन्द्वों में भी विषमता न लाने की प्रेरणा इसी प्रकार ‘सामायिक पाठ' में भी आचार्य अमितगति ने कई अन्य द्वन्द्वों में मेरा मन सम (समत्वभाव में स्थित) रहे, ऐसी प्रार्थना वीतराग प्रभु से की है-“हे नाथ ! सुख में अथवा दुःख में, शत्रु पर या मित्र (वैरी या बन्धुवर्ग) पर, संयोग या वियोग में, भवन या वन (मनोज्ञ-अमनोज्ञ क्षेत्र या स्थान) में, मेरा मन सम रहे।'' अर्थात् हर अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति में मेरी मनःस्थिति सम रहे। मिथ्यादृष्टि और सम्यग्दृष्टि की सुख-दुःख विषयक मान्यता में बहुत ही अन्तर ___ सुख और दुःख में समभाव रखने पर सम्यग्दृष्टि संवर और निर्जरा का उपार्जन कर सकता है। ऐसी स्थिति में प्रश्न होता है, क्या समतायोगी दुःख से निवृत्त होने और सुख प्राप्त करने का प्रयत्न नहीं करता? इसका समाधान यह है कि समतायोगी भी सुख चाहता है, किन्तु वह इस क्षणिक वैषयिक सुख को या पदार्थनिष्ठ या परिस्थितिजन्य सुख को वास्तविक सुख नहीं मानता, न ही ऐसे क्षणिक सुख में वह आसक्त होता है, न उसे पाने की लिप्सा रखता है और ऐसा सुख प्राप्त हो भी जाए तो वह आसक्तिपूर्वक भोगता नहीं, न ही ऐसे सुख के संरक्षण के लिए दौड़-धूप करता है, न ही उस सुख के वियोग होने पर व्यथित होता है। सम्यग्दृष्टि समत्वयोगी उस दुःख, कष्ट या संकट का सुखरूप में अनुभव करता है, जो अहिंसा-सत्यादि धर्म या सम्यग्दर्शनादि रत्नत्रयरूप धर्म के पालन के लिए; क्षमा, समता, विनय, वैयावृत्य आदि धर्मों की साधना के लिए सहना पड़ता है। वैषयिक या पदार्थनिष्ठ सुखों को वह दुःख के वीज मानकर उनमें लुब्ध नहीं होता। पूर्वकृत पुण्य के फलस्वरूप कदाचित् स्वस्थ शरीर, सशक्त मन, प्रखर बुद्धि, प्रबल मनोबल, पंचेन्द्रियपूर्णता दीर्घायुष्य, स्वस्थ तन-मन, सहयोगी कुटुम्ब या परिजन तथा अन्यान्य सुख के प्रचुर साधन प्राप्त हों तो भी वह भग्त चक्रवर्ती की तरह उनमें मोहग्रस्त, आसक्त या लिप्त नहीं होता, वह इन्हें पर-पदार्थ समझकर १. 'सोया मन जाग जाए' के आधार पर, पृ. १८२ २. दुःखे सुखे वैरिणि बन्धुवर्गे, योगे वियोगे भवने वने वा। निराकृताशेष-ममत्ववुद्धः, समं मनो मेऽस्तु सदापि नाथ !" -सामायिक पाठ, श्लो. ३ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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