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________________ @ मुक्ति के अप्रमत्तताभ्यास के सोपान 8 ५०३ 8 गजसुकुमार मुनि की उपसर्ग के समय आत्म-स्थिरता गजसुकुमार मुनि का जीवन इसका ज्वलन्त साक्षी है। अपने जामाता गजसुकुमार को सोमल ब्राह्मण ने जव श्मशान भूमि में ध्यानस्थ खड़े देखा तो उसके मन में तीव्र वैर-भाव जाग उठा। सुनसान श्मशान के एक कोने में नंगे पैर मुण्डित सिर श्री गजसुकुमार मुनि कायोत्सर्ग में खड़े हैं। परिणामों की उत्तरोत्तर उन्नत धारा से उनकी आत्मा ऊपर अध्यात्म-गगन में उड़ रही है। क्षमा और शान्ति के शीतल फुहारों से चित्त शान्त और शीतल हो चुका है। ठीक उसी समय क्रोध के प्रति क्रोध स्वभावता की सिद्ध हुई साधना की कसौटी होती है। सोमिल ब्राह्मण का पराकाष्ठा पर पहुँचा हुआ क्रोध पहले तो मर्मस्पर्शी तीव्र कठोर वाणी की चोट करता है। जब वह हथियार निष्फल हो गया तो मुनि के मस्तक के चारों ओर गीली मिट्टी की पाल बाँध एक चिता में से धधकते हुए खैर के अंगारे एक ठीकरे में भरकर लाता है और मुनि के मुण्डित मस्तक पर उँडेल देता है। बस फिर क्या था, मुनि के मस्तक की कोमल चमड़ी तड़ातड़ फटती हैं। सारे शरीर में अंगार-ज्वाला व्याप्त हो जाती है। परन्तु धीर-वीर, मुनिपुंगव गजसुकुमार की शुक्लध्यान-धारा जरा भी विचलित न हुई; क्योंकि उन्होंने इस प्रसंग को अपने पूर्वकृत कर्म का फल समझकर पूर्ण समभाव से भोगा और एकमात्र आत्म-शुद्धि की ओर ही अपनी दृष्टि रखी। उस समय मुनि ने अन्तरतम की गहराई में उतरकर यही सोचा कि मैं भले ही गजसुकुमार के देह में पूरित हूँ किन्तु स्वभाव से अखण्ड से अखण्ड और निर्बन्ध आत्मा हूँ। इसी से उन्होंने अनुभवजन्य आनन्द लूटा। अन्यथा, ऐसे प्रसंग में आत्म-स्थिरता नहीं रह सकती थी। गजसुकुमार मुनि का आवेशरहित प्रशमभाव अन्त तक तभी टिक सका, क्योंकि उनका मानकषाय सर्वथा नष्ट हो गया था। मैं गजसुकुमार हूँ। मुझ निर्दोष को इतना दण्ड !' यदि इतना भी (देह का) अभ्यास होता तो वे क्षमाशील भले ही रह सकते, परन्तु उनका बेड़ा पार न होता। ‘अन्तकृद्दशांगसूत्र में कहा गया हैगजसुकुमार मुनि को पुनः शरीर नहीं धारण करना पड़ा। उनकी आत्मा अपुनरागमन धाम में पहुंच गई। अनुकूल-प्रतिकूल मान-उपसर्ग के समय मन में दृढ़ समभाव रहे ... ऐसे उच्च कोटि के क्षमाशील साधक में जरा-सा सूक्ष्म मान भी न रहे, इसके लिए कहा गया है ___"वंदे चक्री, तथापि न मले मान जो।" १. देखें-अन्तकृद्दशासूत्र में गजसुकुमार मुनि का वृत्तान्त Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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