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________________ ५०२ कर्मविज्ञान : भाग ८ अष्टम सोपान का उत्तरार्द्ध अगले (अष्टम) पद्य में ऐसे उच्च कोटि के साधक की मनोदशा कैसी होनी चाहिए तथा उसका जीवनव्यापी परिणाम प्रगट में कैसा होगा ? इसके लिए कहा गया है" बहु उपसर्गकर्ता प्रत्ये पण क्रोध नहि, वंदे चक्री तथापि न मले मान जो । देह जाय पण माया थाय न रोममां, लोभ नहि छो, प्रबल सिद्धि-निदान जो ॥८॥" अर्थात् प्रत्यक्ष कोई भी कारण न हो, फिर भी बचने का कोई भी मौका दिये बगैर या सावधान किये बगैर प्राणों पर अकस्मात् आक्रमण करने वाले के प्रति भी लेशमात्र आवेश न आए। सत्ता, सम्पत्ति, शक्ति, साधना और शासन इन पाँचों पदार्थों में सर्वोपरि समझे जाने वाले चक्रवर्ती का किसी के आगे नहीं झुकने वाला मस्तक भी झुक-झुककर उसकी चरण-धूलि अपने सिर पर चढ़ाए, फिर भीं अभिमान का एक भी अंकुर पैदा न हो । शरीर जाता हो तो भले जाए, परन्तु मेरे एक भी रोम में माया का स्पर्श न हो। सारे संसार को अपने चमत्कार से प्रभावित कर दे, ऐसी प्रबल सिद्धियाँ (लब्धियाँ) स्वाभाविक रूप से हाथ जोड़े खड़ी हों, फिर भी पर-वस्तु में स्वयं न फँसे, सिर झुकाए हाजिर खड़ी सिद्धियों को भी संसार का प्रत्यक्ष कारण जानकर उससे आत्मा अलिप्त रहे। ऐसी उत्कृष्ट परिणामधारा दशम गुणस्थानवर्ती साधक की होनी अनिवार्य है। एक-एक कषाय नष्ट होने की क्रमशः कसौटी कैसे होती है ? इतनी उच्च अप्रमत्त दशा जिसे सहज प्राप्त हो चुकी, उस साधक का अव्वल नम्बर का आध्यात्मिक शत्रु क्रोध तो नष्ट हो ही चुका, समझो। परन्तु क्रोध जड़मूल से चला गया, इसकी प्रतीति क्या ? इसलिए उसकी मनोदशा का वर्णन किया गया है" बहु उपसर्गकर्ता प्रत्ये पण क्रोध नहि ।” क्रोध विनाश का पहला परिणाम यह आता है कि उपसर्ग करने वाले की दृष्टि से भी दिखाई देने वाला महान् उपसर्ग उसके लिए बोध और समभाव का महाप्रेरक साधन बन जाता है। वह उपसर्ग भी उसके लिए पूर्ण समभाव से आत्म-स्थिरतापूर्वक सह लेने से सर्वकर्मक्षयरूप मोक्ष का वरदान देने वाला हो जाता है। उसे यह भी प्रत्यक्ष बोध हो जाता है कि विश्व में होने वाली एक छोटी से छोटी घटना भी अहैतुक नहीं है । ' १. (क) 'सिद्धि के सोपान' से भाव ग्रहण, पृ. ५६ (ख) उत्तराध्ययन, अ. २, गा. ३८, ११, २६, ४३-४४ (ग) आचारांगसूत्र, श्रु. १, अ. ९, उ. ३, गा. ९ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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