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________________ * ५०० 8 कर्मविज्ञान : भाग ८ ® संकटों के सामने दीन-हीन बनता है। वह अपने में आत्म-शक्तिरूपी पूँजी की अमीरी की विशेषता रखता है) फलतः आठवें गुणस्थान में पहुँचकर वह सूक्ष्म मान की बेड़ी को भी तोड़ डालता है; जबकि 'अहं ब्रह्मास्मि' कहने वाला ऐसे संकटों के . अवसर पर पामर, दीन, कंगाल और कायर बन जाता है। सूक्ष्म माया कैसे पकड़ती है, उससे छुटकारा कैसे हो ? इतने सूक्ष्म बन्धनों से छूटने के बाद भी साधक को माया का मगरमच्छ पकड़ लेता है। 'मैं बड़ा हूँ' इसके बदले 'मैं लघु से लघु हूँ', यह भाव आया कि फिर 'मैं कैसे नमन करूँ?' यह ग्रन्थि टूट जाती है और हृदय सहज ही विश्व विशाल हो जाता है। फिर अपनी भूलों को नम्रतापूर्वक खुल्लमखुल्ला प्रगट करने आदि का उसे अनायास ही अभ्यास हो जाता है। ऐसे साधक में भी अमुक बात उत्तम है, परन्तु अमुक समय में और अमुक को ही कहने जैसी है; दूसरे को नहीं; ऐसी सात्त्विकता को भी छिपाने या अपने हृदय में संगृहीत करके रखने की वृत्ति रहः । जाती है। स्त्री-जन्म मिलने का कारण भी ऐसी सूक्ष्म माया है। जहाँ तक अस्पष्टता है, वहाँ तक माया है और माया है, वहाँ तक जन्म-मरण का चक्कर है। ___ ऐसे उच्च साधक में बहुत सूक्ष्म माया हो सकती है, अतः इससे छुटकारा पाने का उपाय बताया गया है-"माया प्रत्ये माया साक्षी भावनी।" अर्थात् माया भले ही हो, पर वह माया (यानी प्रीति) साक्षी भाव के प्रति हो। और ऐसी भूमिका में क्षपकश्रेणी वाला जीव इसी भाव को रखकर (नवम गुणस्थान में) माया को पार कर जाता है। अर्थात् जब भी माया करने (छिपाने) का भाव आया कि तत्काल उसका वह निराकरण कर लेता है। उधार बिलकुल नहीं रखता। ऐसे साधक को एक भी विकल्प का परिग्रह रखना नहीं पोसाता। वह तो साक्षीभाव में ही रहता है। जैसे-न्यायालय में वादी-प्रतिवादी कितने ही उबलें, एक-दूसरे पर गुस्से में कितने ही उछलें, परन्तु आदर्श साक्षी (प्रत्यक्ष द्रष्टा, गवाह) तो सिर्फ उसने जो कुछ देखा है, वही ठंडे कलेजे से कहता है, न तो अधिक, न ही कम। इसी प्रकार उच्च कोटि का साधक आत्मा न तो इसमें शामिल होता है, न उसमें। वह जल-कमलवत् निर्लेप रहता है। अगर वह मेरी बात जान लेगा, तो क्या होगा? इसके बदले-जहाँ सारा विश्व मेरा कुटुम्ब है; वहाँ मैं किससे और क्या छिपाऊँ ? यह (साक्षी) भाव आया कि भले ही उस साधक के विचार, वाणी और व्यवहार (कार्य) एक कोने में प्रवर्तित हों, किन्तु उसका स्थान अखिल विश्व के हृदय में नियत (स्थापित) हो चुकेगा। अतः जितने अंश में साक्षीभाव के प्रति माया (प्रीति) बढ़ती है, उतना-उतना संसार (जन्म-मरण का चक्र) छूटता जाता है। इसके विपरीत जितने अंश में संसार के प्रति (मोह) माया लगती है, उतने अंश में साक्षीभाव छूट जाता है। साक्षीभाव का स्पष्ट सचोट और समता की पराकाष्ठा का चित्र कामविजेता Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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