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________________ ॐ समतायोग का मार्ग : मोक्ष की मंजिल ® २९ * . 'उत्तराध्ययनसूत्र' में द्वन्द्वों के प्रसंगों में सम रहने का निर्देश करते हुए कहा है-“लाभ हो या अलाभ, सुख हो या दुःख, जीवन हो या मरण, निन्दा हो या प्रशंसा, सम्मान हो या अपमान, समतायोगी सभी स्थितियों (द्वन्द्वों) में सम (समभाव में स्थित) रहता है।" "वह इहलौकिक तथा पारलौकिक आशंसाओं के प्रति अनिश्चित (अनासक्त या अप्रतिबद्ध) रहता है। कोई व्यक्ति कुल्हाड़ी से प्रहार करे या शरीर को छीले अथवा कोई शरीर पर चन्दन का लेप लगाए, दोनों परिस्थितियों में तथा आहार मिले अथवा निराहार रहना पड़े, दोनों स्थितियों में समभाव (अनासक्तभाव) में रहे।'' 'आचारांगसूत्र' में कहा गया है-“साधक प्राप्त होने पर गर्व न करे और प्राप्त न होने पर शोक न करे।"२ । __ द्वन्द्वयुक्त जीवन संसार-जीवन है, समतायुक्त जीवन अध्यात्म-जीवन इस प्रकार चेतना के स्तर पर ये और इस प्रकार के अनेक द्वन्द्व हैं। इन द्वन्द्वों में सुख-दुःख, प्रसन्नता-अप्रसन्नता या हर्ष-शोक का अनुभव करना ही कर्मबन्ध और जन्म-मरणरूप संसार है। संक्षेप में कहें तो द्वन्द्वयुक्त जीवन संसार का जीवन और द्वन्द्वमुक्त समतायुक्त जीवन अध्यात्म-जीवन है। जैसे-लाभ और अलाभ का एक द्वन्द्व है, जोड़ा है। मनचाहे पदार्थ का प्राप्त होना लाभ है और मनचाहे पदार्थ का न मिलना अलाभ है। संसार के अधिकांश व्यक्तियों का जीवन इष्ट पदार्थ के लाभ और अलाभ में सुख-दुःख मानकर जीता है। यदि मनचाहा मिल गया तो प्रसन्न, न मिला तो अप्रसन्न। यह प्रक्रिया यहाँ तक ही सीमित नहीं रहती, इस द्वन्द्व के साथ फिर सुख-दुःख का अनुबन्ध हो जाता है। यदि अभीष्ट पदार्थ का संयोग नहीं मिलता है तो मनुष्य बेचैन हो जाता है, उसे प्राप्त करने के लिए नैतिक-अनैतिक सभी प्रकार के प्रयत्न करता है, प्राप्त हो जाने पर उसका वियोग न हो, इसके लिए चिन्तित रहता है, व्यथित रहता है, यदि उस पदार्थ को दूसरा कोई छीन लेता है या किसी को अपने भाग्यवश प्राप्त हो जाता है तो वह उसके प्रति ईर्ष्या, द्वेष या रोष करता है, कलह या युद्ध करता है। इस प्रकार इस एक द्वन्द्व में उलझने के कारण घोर पापकर्मबन्ध होकर मानव संसारवृद्धि करता जाता है। सुख-दुःख का स्वतंत्र द्वन्द्व भी संसार बढ़ाने वाला है। बीमारी, मानसिक व्यथा, चिन्ता, उद्विग्नता, संतान की अप्राप्ति, व्यापार में घाटा अथवा अत्यधिक धनलाभ आदि के कारण भी मानस में इस काल्पनिक पदार्थजन्य विनश्वर सुख-दुःख उत्पन्न होता है। १. लाभालाभे सुहे दुक्खे, जीविए मरणे तहा। समो निंदा-पसंसासु तहा माणावमाणओ॥९०॥ अणिस्सिओ इहं लोए, परलोए अणिस्सिओ। वासी-चंदण-कप्पो य असणे अणसणे तहा॥९२॥ -उत्तराध्ययन, अ. १९, गा. ९०, ९२ २.. लाभुत्ति न मज्जिज्जा, अलाभुत्ति न सोइज्जा। -आचारांग, श्रु. १, अ. २, उ. ५ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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