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________________ २८ कर्मविज्ञान : भाग ८ राग-द्वेषरूपी दो छोरों के बीच में समत्वयोग का पथ है संसार और मोक्ष दोनों एक-दूसरे से विपरीत दिशा में हैं; क्योंकि जहाँ विषमता है, वहाँ संसार है। जहाँ समता है, वहाँ कर्ममुक्ति (मोक्ष) है। राग और द्वेष कर्मबन्ध के हेतु हैं और कर्मबन्ध के कारण ही जन्म-मरणादिरूप संसार है। इसीलिए साम्य (समतायोग ) की परिभाषा करते हुए एक आचार्य कहते हैं- " संसार के दो छोर हैं-एक ओर रागरूपी महासमुद्र है, तो दूसरी ओर द्वेषरूपी दावानल है। इन दोनों छोरों के बीच में जो मार्ग है - जिससे राग और द्वेष, दोनों का लगाव नहीं है - वह साम्य-समतायोग का पथ कहलाता है ।"" 'दशवैकालिक' में कहा है- "जो राग-द्वेष के प्रसंगों में सम रहता है, वही समतायोगी पूज्य है।”२ चित्त या बुद्धि की स्थिति समतामय होने पर ही विषमता मिट सकती है आज सारे विश्व में सामाजिक और आर्थिक समानता के विषय में प्रायः सभी राष्ट्रों का चिन्तन चल रहा है, किसी भी राष्ट्र को सामाजिक और आर्थिक क्षेत्र में विषमता मान्य नहीं है । परन्तु अभी तक जितने भी प्रयत्न सत्ता द्वारा विषमता को मिटाने के हुए हैं, उनमें सफलता नहीं मिली है। विषमता अभी भी बनी हुई है। स्वार्थान्ध व्यक्तियों द्वारा समाज या राष्ट्र में व्याप्त विषमता केवल नारों से या योजना बना देने, कानून या विधेयक पास कर देने से मिट नहीं सकती, न ही मिटी है। जब तक आर्थिक-सामाजिक विषमताओं के कारणों को नहीं मिटाया जाता, तब तक ये विषमताएँ मिटने वाली नहीं हैं। जनता के चित्त, बुद्धि और दृष्टि की स्थिति जब तक समतामय नहीं हो जाती, तब तक विषमता की जड़ें नहीं उखड़ सकतीं। मन, बुद्धि, चित्त और दृष्टि की विषमता का प्रतिबिम्ब सामाजिक, आर्थिक ही नहीं, धार्मिक और सांस्कृतिक क्षेत्रों पर भी पड़ता है, उनमें भी समता की बातें होती हैं, पर जीवन में समता प्रायः दूर रहती है। लाभ-अलाभ आदि द्वन्द्वों में समभाव में स्थित रहे तभी समतायोगी अतः जब तक आध्यात्मिक जीवन में समता नहीं आती, तब तक सांसारिक जीवन में समता आनी कठिन है। आध्यात्मिक जीवन में समता तभी आ सकती है, जब लाभ-अलाभ आदि द्वन्द्वों में मनुष्य न उलझे इन द्वन्द्वों के प्रसंगों में राग और द्वेष-आसक्ति और घृणा–प्रियता - अप्रियता के भाव न लाकर समभाव मेंज्ञाता-द्रष्टाभाव में स्थित रहे। १. इतो रागमहाम्भोधिरितो द्वेष - दवानलः । यस्तयोर्मध्यगः पन्थास्तत् साम्यमिति गीयते ॥ २. जो रागदोसेहिं समो सपुज्जो । Jain Education International For Personal & Private Use Only - दशवै. ९/३/१११ www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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