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________________ ॐ ४४६ ॐ कर्मविज्ञान : भाग ८ अपने-अपने कर्मों के कारण नरक, तिर्यंच, मनुष्य या देवों में उत्पन्न होगा।" आखिर निरुत्तर होकर उसके माता-पिता ने दीक्षा लेने की अनुमति दे दी। दीक्षित हुआ शास्त्राध्ययन, गुणरत्नसंवत्सर तप तथा संयम की आराधना कर गजगृह के विपुलाचल पर अनशन करके अन्तःक्रियापूर्वक सिद्ध-बुद्ध-मुक्त हुए। सप्तम वर्ग में श्रेणिक नप की भोगों में आरक्त १३ गनियों का वर्णन है जिनके नाम हैं-नन्दा, नन्दवती, नन्दोत्तरा, नंदिसेनिका, महयारुमा, सुमरुया, महामरुया, मरुदेवा, भद्दा, सुभद्दा, सुजाया, सुमणा, भूयदिण्णा। इन तेरह गनियों को भगवान महावीर का धर्मोपदेश सुनकर विरक्ति हुई। दीक्षित होकर ग्यारह अंगों का अध्ययन तथा २०-२० वर्ष तक संयम-पालन किया तथा अन्तःक्रिया करके सिद्ध-बुद्ध-मुक्त हुईं। ___ अष्टम वर्ग में भी श्रेणिक राजा की दस रानियों की अन्तःक्रिया का वर्णन है। इन दस रानियों के नाम थे-काली, सुकाली, महाकाली, कृष्णा, सुकृष्णा, . महाकृष्णा, वीरकृष्णा, रामकृष्णा, पितृसेनकृष्णा और महासेनकृष्णा। ये दसों रानियाँ संसार के विषयभोगों में डूबी हुई थीं, किन्तु जब इन दसों रानियों के कालीकुमार आदि दसों पुत्र कोणिक राजा का चेडा महाराजा के साथ संग्राम में काम आ गए। भगवान महावीर के मुख से यह वृत्तान्त सुनते ही दसों गनियों को पर-पदार्थों की अनित्यता और असारता जानकर विरक्ति हुई। दीक्षा ग्रहण की। शास्त्राध्ययन के साथ-साथ रलावली, कनकावली, क्षुद्रसिंह-निष्क्रीड़ित, महासिंहनिष्क्रीड़ित, अष्ट-अष्टमिका भिक्षुप्रतिमा, क्षुद्रसर्वतोभद्र, महासर्वतोभद्र, भद्रोत्तर प्रतिमा, मुक्तावली एवं आयंविल वर्द्धमान आदि कठोर तपश्चर्या करके समस्त कर्मों के क्षयरूप अन्तःक्रिया की और सिद्ध-वुद्ध-मुक्त हुईं। निष्कर्ष यह है कि अन्तकृद्दशासूत्र के आठों ही वर्गों में वर्णित महान् अन्तकृत साधक-साधिकाओं के द्वारा विविध भूमिकाओं और विभिन्न परिस्थितियों में अन्तःक्रिया की गई। ___ 'अन्तकृद्दशासूत्र' में विविध प्रकार से विविध भूमिकाओं में रहे हुए मानवों के द्वारा अन्तःक्रिया करने का वर्णन पढ़ने से यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि किसी को सर्वकर्मक्षयरूपा अन्तःक्रिया करने में दीर्घकाल लगता है, किसी के अल्पकाल में ही अन्तःक्रिया सम्पन्न हो जाती है, किसी साधक को अनेक भवों के बँधे हुए कठोर कर्मों को काटने में तप, संयम हेतु वहुत ही पराक्रम = पुरुषार्थ करना पड़ता है, अनेक परीपह और उपसर्ग समभावपूर्वक सहने पड़ते हैं और कई साधकों को तप-संयम में थोड़ा-सा पुरुपार्थ करने से ही उनकी अन्तःक्रिया हो जाती है। यही १. अन्तकृद्दशा, वर्ग ६. अ. १-३. १५ २. वही, वर्ग ७, अ. १-१३ ३. वही, वर्ग ८, अ. १-१० Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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