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________________ ॐ समतायोग का मार्ग : मोक्ष की मंजिल ॐ २५ * और. मिट्टी आदि सभी सजीव-निर्जीव पदार्थों के प्रति राग-द्वेष के अभाव का नाम समता है।" समतायोग का मूल्य समतायोग (सामायिक) का मूल्य यदि कोई रुपयों-पैसों, सुख-साधनों या किसी पद, प्रतिष्ठा या सत्ता आदि की प्राप्ति के रूप में चाहे तो समझना चाहिए, उसने समतायोग का स्वरूप ही नहीं समझा। जो समतायोग का स्वरूप भलीभाँति नहीं समझता, वह उसका मूल्य इहलौकिक सुख, भोगोपभोग, यश कीर्ति आदि या पारलौकिक सुख, समृद्धि आदि के रूप में पाना चाहता है। परन्तु समतायोग ऐसी सौदेबाजी की वस्तु नहीं है। उसका मूल्य अगर भौतिक सम्पदा के रूप में होता तो मगध-सम्राट् श्रेणिक अपने राज्य के नागरिक पूणिया श्रावक से उसे खरीद नहीं लेता? भगवान महावीर से जब पूछा गया-“सामायिक से जीव को क्या लाभ होता है।" इसके उत्तर में उन्होंने कहा-“सामायिक (समताभाव जीवन के सभी क्षेत्रों में ओतप्रोत हो जाने) से जीव सावद्ययोग (अठारह पापस्थानयुक्त मन, वचन, काय प्रयोग) से विरति हो जाती है। समतायोग (समभाव) की परम्परागत उपलब्धि यां परम्परा से लाभ का स्पष्ट और निष्पक्ष उल्लेख करते हुए एक आचार्य कहते हैं"समता का साधक चाहे श्वेताम्बर हो, चाहे दिगम्बर हो, चाहे बौद्ध हो अथवा किसी अन्य धर्म से सम्बद्ध हो; जिसकी आत्मा समभाव से भावित है, वह निःसन्देह मोक्ष (सर्वकर्ममुक्ति) पा लेता है।" समत्वचेतना जाग्रत होने से शान्ति, समाधि और आनन्दानुभूति - भगवान महावीर के तथा पूर्वोक्त आचार्य के कथन का फलितार्थ यह है कि जब इस प्रकार का समत्वयोग (सामायिक) मन, बुद्धि, चित्त और हृदय में स्थिर हो जाता है, आत्मा में समत्व की चेतना जाग्रत हो जाती है, तब पाप की समस्त धाराएँ अवरुद्ध होनी प्रारम्भ हो जाती हैं। समत्व के जाग्रत होने पर लेश्याओं में, १. (क) समभावो सामाइयं, तण-कंचण-सत्तु-मित्त-विसउ त्ति। णिरभिसंगचित्तं उचित-पवित्ति-पहाणं च॥ । (ख) समता सर्वभूतेषु संयमः शुभभावनाः। आर्त-रौद्र-परित्यागस्तद्धि सामायिकं व्रतम्॥ (ग) सत्तु-मित्त-मणि-पहाण-सुवण्ण-मट्टियास। रागदोसाभावो समदा णाम॥ -धवला ८/३, ४१/१ २. सामाइएणं सावज्जजोगविरई जणयइ। -उत्तराध्ययन २९/८ . ३. (क) आया सामाइए, आया सामाइयस्स अट्टे। -भगवतीसूत्र (ख) सेयंबरो य आसंबरो य बुद्धो वा तहव अन्नो वा। . समभाव-भावियप्पा लहइ मुक्खं न संदेहो॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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