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________________ २४ कर्मविज्ञान : भाग ८४ के निवारण के लिए चाहे जितना धन, साधन एवं सुख-सामग्री जुटा ले, चाहे जितने भौतिकविज्ञान के प्रयोग और नित नये आविष्कार कर ले, बौद्धिक उड़ान के द्वारा चाहे जल, स्थल और आकाश पर आधिपत्य जमा ले, चाहे जितने जप, तप, नामस्मरण कर ले, चाहे जितनी प्रभु-प्रार्थना कर ले, भौतिक विद्याएँ पढ़ ले, जटाएँ या शिखायें रख ले या चाहे साधुवेष धारण कर ले, लच्छेदार भाषण कर ले, चाहे जितने रजोहरण, पात्र आदि धर्मोपकरण ले ले, विभिन्न उत्कट क्रियाकाण्ड कर ले, पूर्वोक्त विभिन्न समस्याओं का हल, चिन्ताओं एवं दुःखों का निवारण नहीं हो सकेगा। समतायोग का उद्देश्य और प्रयोजन समतायोग का उद्देश्य भी साधक को समभावों से ओतप्रोत कर देना है। उसके मन, वचन, काया, व्यवहार और अध्यात्म - जीवन में समत्वरस भलीभाँति आ जाये तथा उसके आन्तरिक जीवन में क्रोध, मान, माया, लोभ, मोह, राग-द्वेष, अज्ञान, दुराग्रह, मिथ्यात्व, अन्ध-श्रद्धा आदि के उपशम, क्षय या क्षयोपशम की मात्रा बढ़ती जाये, भोगों के प्रति विरक्ति और आत्म-भावों में स्थिरता बढ़े तथा : उसे सांसारिक या भौतिक विषयों में विशेष दिलचस्पी न रहे, यही समतायोग का प्रयोजन है। समतायोग का बाह्य एवं आन्तरिक स्वरूप ही उसका उद्देश्य समतायोग के लिए आन्तरिक और बाह्य दोनों प्रकार की समता का जीवन में आना नितान्त आवश्यक है। आन्तरिक समता का सम्बन्ध मानसिक तथा आध्यात्मिक क्षेत्र से है, जबकि बाह्य समता का सम्बन्ध पारिवारिक, साम्प्रदायिक, सामाजिक, राष्ट्रीय, शारीरिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक आदि क्षेत्रों से है। समतायोग से अभ्यस्त होने पर दृश्यमान तथा सम्पर्कगत संसार अथवा भौतिक संसार के प्रति समता आ जानी चाहिए। जैसा कि एक तत्त्वज्ञ ने कहा है“सामायिक (समतायोग) का मुख्य लक्षण 'समभाव' है; जिसे तृण और कंचन, शत्रु और मित्र इत्यादि से सम्बद्ध विषमताओं के अवसर पर रखना आवश्यक है। समभाव में चित्त को रखने के लिए उसे आसक्तिरहित रखना और उचित निरवद्य प्रवृत्ति करना आवश्यक है।" सामायिक का स्वरूप भी बाह्याभ्यन्तरसमतामूलक बताते हुए एक आचार्य ने कहा है - " समस्त प्राणियों के प्रति समता (समभाव), शुभ भावनाएँ तथा आर्त्त - रौद्रध्यान का परित्याग, यही तो सामायिकव्रत है। फलितार्थ यह है कि समभाव की प्राप्ति, समता का अनुभव और प्राणिमात्र में समता की वृत्ति - प्रवृत्ति आदि ही समतायोग का प्रधान उद्देश्य है । 'धवला' में भी यही तथ्य द्योतित किया गया है - "शत्रु-मित्र, तृण-मणि, सोना Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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