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________________ ४२८ कर्मविज्ञान : भाग ८ मिथ्यात्व के कारण ही मैं देह और आत्मा को अब तक एक मानता रहा । परन्तु वास्तव में जैसे चना और उसका छिलका, मौसम्बी और उसका छिलका पृथक्-पृथक् हैं; वैसे ही शरीर और आत्मा ये दोनों पृथक्-पृथक् हैं। आत्मा निश्चयनय की दृष्टि से पूर्ण विशुद्ध है । वह सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र और अनन्त आनन्द तथा अनन्त अव्याबाध सुख (आनन्द) से युक्त है, आत्मा पर राग-द्वेष, मोहादि के कारण ज्ञानावरणीय, मोहनीय आदि कर्मों का आवरण है, इसके कारण ही पूर्वोक्त गुण प्रगट नहीं हो रहे हैं। समाधिमरण की इस साधना में राग-द्वेषादि विकारों को नष्ट करने तथा आत्मा के साथ बँधे हुए कर्म मैल को दूर करने का सामर्थ्य है। संथारा भेदविज्ञान तपश्चर्या द्वारा आत्म-शुद्धि, कर्मों से मुक्ति की एक अनूठी साधना है। संलेखना - संथारा स्वेच्छा से ग्रहण किया जाता है, किसी के दबाव में आकर नहीं । संलेखना साधक में तनिक मात्र भी विषमता, वासना, दुर्भावना, वैमनस्य, वैर-विरोध आदि नहीं होते, उसके हृदय में समता, वासनामुक्ति, सद्भावना, मैत्री, निर्वैरता, क्षमापना आदि भावनाएँ प्रतिक्षण लहराती रहती हैं। संलेखना -संथारा आत्म-भाव में स्थिर रहने का महान् उपाय है। संलेखना - संथारा- साधक का शरीर अकाल में नष्ट होने का प्रसंग हो, तब वह समभावपूर्वक देह का ममत्व त्याग देता है, आत्म-भावों में स्थिर हो जाता है । संथारा-साधक लोकैषणा, वित्तैषणा, पुत्रैषणा, प्रसिद्धि-प्रशंसा की एषणा आदि से दूर रहता है तथा पहले बताये गये पाँच अतिचारों से सदैव बचकर चलता है। पहले बताया जा चुका है कि पूर्वोक्त समाधिमरणों में से किसी भी मरणयुक्त साधक (श्रावक या साधु) संलेखना - संथारा की विशिष्ट भावना ( मनोरथ, संकल्प ) से ही महानिर्जरा और महापर्यवसान ( उच्चतम देवलोक या जन्म-मरण का सदा के लिए अन्तरूप अपुनर्गमन = मोक्ष ) प्राप्त करता है। 'महाप्रत्याख्यान प्रकीर्णक' में बताया है कि जो संयमी साधक समाधिमरण की आराधना से युक्त होकर सम्यक् प्रकार से मृत्यु को प्राप्त करता है, वह अधिक से अधिक तीन भव करके निर्वाण (मोक्ष = सर्वकर्मक्षयरूप मुक्ति) प्राप्त करता है । संस्तारक अर्थात् संलेखना संथारक पर आरूढ़ साधक पुराने कर्मों का क्षय करता है और अन्य नये कर्म संचित नहीं करता तथा कर्मकलंकरूपी लता का छेदन करता है। 'रत्नकरण्डक श्रावकाचार' के अनुसार-संलेखना - संथारा का साधक धर्मरूपी अमृत का पान करने के कारण संसार के सभी दुःखों से मुक्त हो जाता है तथा अभ्युदय और निःश्रेयस के अपरिमित सुखों को प्राप्त कर लेता है। 'भगवती आराधना' में कहा है-“जो जीव एक ही पर्याय में समाधिपूर्वक मरण प्राप्त करता है, वह सात-आठ पर्याय से अधिक संसार में परिभ्रमण नहीं करता।” ‘सागार धर्मामृत' में भी कहा है - जिस महासाधक ने संसार-परम्परा को समग्र रूप Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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