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________________ संलेखना - संथारा : मोक्ष यात्रा में प्रबल सहायक ४२७ बीस विहरमान तीर्थंकरों को वन्दना - नमस्कार करे । साधु-साध्वी प्रमुख चारों तीर्थों से क्षमापना करके, समस्त जीवराशि से क्षमायाचना करके पहले जो व्रतों / महाव्रतों का स्वीकार किया है, उनमें जो अतिचार (दोष) लगे हों, उन सब की आलोचना, प्रतिक्रमणा, निन्दना, गर्हणा करके निःशल्य होकर तीन बार नवकार मंत्र, तीन बार वन्दना, इच्छाकारेणं, तस्स उत्तरीकरणेणं, लोगस्स का पाठ ( ध्यान में और प्रगट में ) बोलकर तीर्थंकर भगवान की साक्षी से यों निवेदन करे“भगवन् ! मैं अभी से सागारी या अनागारी अपश्चिम मारणान्तिक संलेखना (भक्त-प्रत्याख्यान संथारे) का यावज्जीवन प्रीतिपूर्वक सेवन एवं आराधना करता हूँ। (अर्थात् अशन, पान, खादिम - स्वादिम यों चारों प्रकार या तीन प्रकार के आहार का त्याग करता हूँ।) प्राणातिपात से लेकर मिथ्यादर्शनशल्य तक १८ प्रकार के पापस्थानों का त्याग करता हूँ। जिस शरीर को इष्ट, कान्त, मनोज्ञ, मनोरम, धैर्यदाता, विश्वसनीय, आदेय (माननीय), अनुमत, बहुमत, भाण्डकरण्डकसमान, रत्नों के पिटारे के समान माना तथा जिसके विषय में इतनी सावधानी रखी कि इसकी क्षुधा पिपासा मिटाकर एवं सर्दी-गर्मी से रक्षा कर सदैव जतन किया, सर्प, चोर, डांस, मच्छर आदि से इसका रक्षण किया तथा वात, पित्त, कफ, श्लेष्म, सन्निपात आदि विविध रोगों, आतंकों, परीषहों, उपसर्गों आदि से भी बचाया, विविध प्रकार के अप्रिय स्पर्शो से सुरक्षित रखा। इस प्रकार सुरक्षा प्राप्त इस शरीर पर मैंने अब तक मोह-ममत्व किया था। अब मैं इसे अन्तिम श्वासोच्छ्वास तक त्यागता (वोसराता) हूँ। अब मुझे इसकी कोई चिन्ता न होगी, क्योंकि अब यह शरीर धर्म-पालन में समर्थ न रहा, बोझरूप हो गया, जीर्ण-शीर्ण एवं असक्त हो गया या विविध रोगों से आक्रान्त हो गया ।" इस प्रकार शरीर के ममत्व का व्युत्सर्ग करके दो बार नमोत्थुणं के पाठ से विधिवत् तीर्थंकरों और सिद्धों की • स्तुति एवं प्रणिपात करे । इसके बाद वह संथारा - साधक सदैव सतर्क एवं सावधान रहे, अपनी प्रतिज्ञा पर दृढ़ रहे । शीघ्र मृत्यु की आकांक्षा न करता हुआ विचरे । पहले बताया जा चुका है कि संलेखना के पश्चात् संथारा किया जाता है । संलेखना के पश्चात् जो संथारा किया जाता है, उससे अधिक निर्मलता और विशुद्धता निष्पन्न होती है। संलेखना के साथ 'मारणान्तिकी' विशेषण जहाँ प्रयुक्त होता है, वहाँ अन्य तपःकर्म से इस संलेखना - संथारा की विशेषता और पृथक्ता ज्ञात होती है। संलेखना - संथारापूर्वक समाधिमरण के साधक को मृत्यु को स्वीकार करने में अपूर्व आनन्द होता है । वह सोचता है - " यह आत्मा अनन्त काल से कर्मजाल में फँसी हुई है। उस जाल को तोड़ने का मुझे अपूर्व अवसर मिला है। कर्मबन्धन के जाल में आत्मा के फँसने का विशिष्ट कारण मिथ्यात्व और मोह है। १. (क) देखें - आवश्यकसूत्र में बड़ी संलेखना का पाठ (ख) 'जैन' आचार: सिद्धान्त और स्वरूप' से भाव ग्रहण, पृ. ७१० Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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