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________________ ॐ संलेखना-संथारा : मोक्ष यात्रा में प्रबल सहायक ॐ ४२३ ॐ आचार्य वीरनन्दी ने 'आचारसार' ग्रन्थ में लिखा है-साधक को संलेखनासंथारा की सफलता के लिए योग्य स्थान का चुनाव करना चाहिए। जहाँ के शासक के मन में धार्मिक भावना हो, जहाँ की प्रजा के अन्तर्मानस में धर्म और आचार्य के प्रति गहन निष्ठा-श्रद्धा हो, जहाँ के निवासी आर्थिक दृष्टि से समृद्ध और सुखी हों; जहाँ का वातावरण तपःसाधना के लिए व्यवधानकारी न हो। साथ ही साधक को अपने शरीर तथा चेतन-अचेतन किसी भी पदार्थ के प्रति मोह-ममता न हो। यहाँ तक कि (साधु को) अपने शिष्यों (गृहस्थों को अपने पुत्र-पुत्रियों आदि) के प्रति मन में किंचित् भी आसक्ति न हो; वह परीषहों और उपसर्गों को समभाव से सहन करने में सक्षम हो।' संलेखना-संथारा से पूर्व जीवन-मरण की अवधि जानना भी आवश्यक संलेखना-संथारा ग्रहण करने से पूर्व इस बात की जानकारी शरीर के कुछ लक्षणों या संकटों से या किसी मित्रदेव द्वारा दिये गये संकेत से, ज्ञानी द्वारा दिये गये सूचन से अथवा. प्रातिभज्ञान से कर लेनी आवश्यक है कि जीवन और मरण की अवधि कितनी है? यदि शरीर में कोई व्याधि ऐसी हो गई है, जो लम्बे अर्से तक चलने वाली है, अथवा जीवन की अवधि लम्बी है तो संलेखना-संथारा ग्रहण करने का विधान नहीं है। दिगम्बर परम्परा के तेजस्वी आचार्य समन्तभद्र को भस्मक रोग हो गया था, उससे वे अत्यन्त पीड़ित रहने लगे। उन्होंने अपने गुरुदेव से संलेखना-संथारे की अनुमति चाही। परन्तु उनके गुरुदेव ने अनुमति नहीं दी, क्योंकि उन्होंने देखा कि इनका आयुष्यबल अधिक है तथा इनसे जिन-शासन की प्रभावना होगी। श्वेताम्बर आचार्यों ने मृत्युकाल की जानकारी के लिए अनेक उपाय बताये हैं। उपदेशमाला के व आम्नाय आदि के द्वारा आयु का समय सरलता से जाना जा सकता है। भक्त-प्रत्याख्यान, इंगिणीमरण और पादपोपगमन : स्वरूप, प्रकार और विश्लेषण पहले हम पण्डितमरण के स्वरूप और प्रकार का उल्लेख कर चुके हैं। उसी सन्दर्भ में 'उत्तराध्ययन' की बाह्य टीका में पण्डितमरण के तीन प्रकार और उनके सहित पाँच भेद बताये हैं-(१) भक्तपरिज्ञा (भक्त-प्रत्याख्यान) मरण, (२) इंगिणीमरण, और (३) पादपोपगमनमरण तथा छद्मस्थमरण और केवलीमरण। पादपोपगमन-संथारा का साधक अपने शरीर की परिचर्या न तो स्वयं १. (क) रत्नकरण्डक श्रावकाचार, श्लो. १२५-१२८ (ख) आचारसार, गा. १० २.. 'जैन आचार : सिद्धान्त और स्वरूप' से भाव ग्रहण, पृ. ७१२, ७१७ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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