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________________ * ४२२ ® कर्मविज्ञान : भाग ८ अभाव होने में सुगमता रहे परिवर्तन बुरा नहीं है, किन्तु मूल में पूर्वोक्त तीनों मुख्य सम्बन्धियों से सम्बन्ध-विच्छेद करने के लिए हमें उनके प्रति राग-द्वेष, क्रोधादि कषाय, मोह, दुर्भाव आदि छोड़ना यानी विभावों को छोड़कर स्व-भाव में रमण करना है। (२) यह क्रियासाध्य नहीं है-सम्बन्ध-विच्छेद के लिए तन, मन, इन्द्रियाँ आदि के जरिये किसी क्रिया को करने की आवश्यकता नहीं है। मनुष्य का सांसारिक सम्बन्ध बनता है-ममत्व का भाव रखकर उनसे सुख प्राप्त करने की आशाआकांक्षा से, उन भावों (विभावों) को छोड़ना ही सम्बन्ध तोड़ना है। .. (३) इसमें पराश्रय, पराधीनता या श्रम भी जरूरी नहीं-सम्बन्ध-विच्छेद में लेशमात्र भी पराश्रय (परभावाश्रय), पराधीनता या परिश्रम की आवश्यकता नहीं होती, बल्कि इसमें तो पर-भावों के आश्रय और विभावों की पराधीनता के त्याग करने का पुरुषार्थ ज़रूरी है, जो आत्म-भावों में रमण करने से हो सकता है। ___(४) समय भी अपेक्षित नहीं-सम्बन्ध-विच्छेद अभी इसी क्षण एक झटके में किया जा सकता है। इसमें एक पल का भी समय नहीं लगता। मोह-सम्बन्ध को. मोक्ष-सम्बन्ध में परिणत करना है। केवल दृष्टि, अध्यवसाय एवं भाव बदलना है।' संलेखना-संथारा ग्रहण करने से पूर्व क्षमापना और आत्म-शुद्धि भी अनिवार्य सम्बन्ध-विच्छेद के सन्दर्भ में 'रत्नकरण्डक श्रावकाचार' में बताया गया है कि संलेखना-संथारा व्रत ग्रहण करने से पूर्व यदि किसी भी जीव या व्यक्ति के प्रति मन में आक्रोश हो तो उससे क्षमायाचना कर लेनी चाहिए। मेघ मुनि, धन्ना अनगार आदि सभी श्रमणों तथा काली-महाकाली आदि श्रमणियों ने तथा आनन्द, कामदेव आदि श्रावकों ने संलेखना-संथारा ग्रहण करने से पूर्व सभी निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों, श्रावकश्राविकाओं तथा अन्य सभी जीवों से क्षमा का आदान-प्रदान कर लिया था। इसके अतिरिक्त मानसिक शान्ति, हृदय की विशुद्धि एवं कर्मनिर्जरा द्वारा आत्म-शुद्धि के लिए सर्वप्रथम योग्य गीतार्थ सद्गुरु के समक्ष निःशल्य होकर आलोचना करके प्रायश्चित्त ग्रहण कर शुद्ध हो जाना चाहिए। आलोचना करते समय मन में किंचितमात्र भी संकोच नहीं करना चाहिए। अपने जीवन में जिस किसी प्रकार से तन-मन-वचन से कुछ भी पाप-दोष लगे हों, अपराध कृतः कारित-अनमोदित रूप से हुए हों, उनकी आलोचना करके आत्म-शुद्धि कर लेनी चाहिए। सद्गुरु का योग न हो तो बहुश्रुत श्रावक-श्राविका के समक्ष या फिर अहंत भगवन्तों की साक्षी से अपने दोषों को प्रकट कर देना चाहिए। पंच परमेष्ठी का ध्यान करना चाहिए। १. 'कल्याण' (मासिक), अगस्त १९९१ के अंक से भाव ग्रहण Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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