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________________ संलेखना-संथारा:मोक्षयात्रा में प्रबल सहायक जीवनकला जितनी महत्त्वपूर्ण है, उससे भी अधिक महत्त्वपूर्ण है मृत्युकला। जीवन जीना यदि अध्ययनकाल है तो मृत्यु परीक्षाकाल है। जो व्यक्ति परीक्षाकाल में जरा-सी भी असावधानी करता है, वह परीक्षा में अनुत्तीर्ण हो जाता है। जिस छात्र ने वर्षभर कठिन परिश्रम किया है, वह परीक्षा देते समय घबराता नहीं है। उसके मन में एक प्रकार का उत्साह होता है कि मैं परीक्षा में सफल होकर आगे की उच्च कक्षा में प्रविष्ट हो जाऊँगा। ऐसा छात्र प्रथम श्रेणी में समुत्तीर्ण भी होता है। वैसे ही श्रमणव्रत की या श्रमणोपासक (श्रावक) व्रत की साधना जिस साधिका/साधक ने की है, वह समाधिमरण के अंगभूत संलेखनाव्रत एवं तदुत्तरं संथारा (भक्त-प्रत्याख्यान) की साधना से घबराता नहीं, बल्कि उसके मन में आनन्द और उल्लास होता है। हम श्रमण-जीवन या श्रमणोपासक के जीवन को सूर्य की उपमा से अलंकृत करें तो कह सकते हैं-श्रमण-दीक्षा या श्रावकव्रत का ग्रहण करना सूर्य का उदयकाल है। उसके पूर्व की श्रमण की वैराग्य-अवस्था तथा श्रावक की नैतिक (मार्गानुसार) जीवन की अवस्था साधक-जीवन का उषाकाल है। जब श्रमण या श्रावक साधक या साधिका उत्कृष्ट तप, जप, धर्मध्यान एवं ज्ञान-दर्शन-चारित्र की साधना करता है, उस समय उसकी साधना का मध्याह्नकाल होता है और जब (साधु या गृहस्थ) साधक संलेखना प्रारम्भ करता है, उस समय उसकी साधना का संध्याकाल होता है। सूर्योदय के समय पूर्व दिशा मुस्कराती है। उषासुन्दरी का दृश्य अतीव लुभावना होता है, उसी प्रकार संध्याकाल में पश्चिम दिशा का दृश्य भी मनभावना होता है। संध्या की सुहावनी लालिमा भी दर्शक के हृदय को आनन्दविभोर कर देती है। वही स्थिति (साधु या गृहस्थ) साधक की है। उसके मन में जीवन के प्रभात में जो उत्साह होता है, वही उत्साह जीवन के संध्याकाल-मरणकाल में होता है। जैन कथानुयोग में संलेखनायुक्त समाधिमरण प्राप्त करने वाले हजारों श्रमण-श्रमणियों तथा गृहस्थ श्रावक-श्राविकाओं का उल्लेख है, जिन्होंने जीवन के संध्याकाल में उत्साह के साथ समाधिपूर्वक मरण का वरण किया है। भगवान महावीर के पश्चात् द्वादशवर्षीय दुष्कालों के समय Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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