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________________ * ३८० ॐ कर्मविज्ञान : भाग ८ समाधिमरण के लिए मृत्यु-महोत्सव-भावना अतः समाधिमरण का साधक मृत्युवेला को एक महोत्सव मानकर मृत्यु को समाधिपूर्वक स्वीकार करता है। मृत्यु-महोत्सव-भावना का भावार्थ है-वीतराग प्रभो ! मुक्तिमार्ग में प्रवृत्त मुझे आत्म-परिणामों की स्थिरवग्रूप समाधि और आत्मा-दर्शन-ज्ञान-रमणतारूप बोधि-जो परलोक-यात्री के मार्ग में सहायक पाथेय हैं, उन्हें दें, ताकि मैं निर्विघ्न मुक्तिपुरी पहुँच सकूँ॥१॥ हे भव्य आत्मन् ! सैकड़ों कृमियों से व्याप्त जर्जरित देहपिंजर यदि टूट जाए तो तुझे जरा भी डरने की आवश्यकता नहीं है; क्योंकि आत्मन् ! तू तो इस जड़ शरीर से पृथक् ज्ञानमूर्ति अविनाशी आत्मा है॥२॥ हे ज्ञानी आत्मन् ! मृत्युरूप महान् उत्सव प्राप्त हुआ है, उससे अव भयभीत क्यों होता है? क्योंकि देही अपने स्व-भावमय स्वरूप में स्थिर होकर दूसरी देह को पाने के लिये प्रस्थान कर रहा है, इसमें भय का क्या कारण है ?॥३॥ अगर (समाधिपूर्वक) मृत्यु द्वारा सत्कर्मों का फल-स्वर्गसुखादि मिलते हैं तो सत्साधक को मृत्यु से भय कैसे हो सकता है?॥४॥ .. गर्भ में आया, तभी से यह मेरा आत्मा कर्मरूपी शत्रु के द्वारा देहरूपी पिंजरे में कैदी की तरह डाल दिया गया और आधि, व्याधि आदि से पीड़ित होकर दुःखी हो रहा है। इसे इस दुःखद स्थिति में से मृत्युरूपी राजा के बिना कौन छुड़ा सकता है?॥५॥ आत्मदर्शी महापुरुष इस मृत्यु नामक मित्र के प्रसाद (कृपा) से सर्वदुःखप्रदायक देहपिण्ड को छोड़कर, देहभाव का सर्वथा त्याग करके आत्म-भाव के सतत अभ्यास से शाश्वत सुख-सम्पत्ति को प्राप्त करता है।॥६॥ मृत्युरूपी कल्पवृक्ष को पाकर भी यदि उससे आत्मार्थ नहीं साधा, अर्थात् समाधि की प्राप्ति नहीं की, तो फिर वह जीव संसाररूपी गहरे कीचड़ में फँस जाएगा, तब अधोगतियों में आत्मोद्धार के लिए क्या कर सकेगा?॥७॥ अर्थात् इस मनुष्य-भव में समाधिमरण के लिए पुरुषार्थ जग जाए तो मरण साक्षात् कल्पवृक्ष के समान उपकारी होकर वांछित (आत्मा के लिए अभीष्ट) प्राप्त कराता है। अगर वैसा न हुआ और 'पर' में ममता व देहाध्यास रखकर मृत्यु हुई तो फिर अधोगति के भ्रमण में आत्मा के उद्धार का अवसर कहाँ से मिलेगा? अतः अभी से सावधान होकर प्रमाद का त्याग करके समाधिमरण को साधने में जाग्रत हो जाना चाहिए। किसी भी मूल्य पर आत्मार्थ नहीं चूकना चाहिए। जिस मृत्यु के प्रताप से जीर्ण हुए शरीर आदि सब छूटकर नवीन शरीरादि प्राप्त होते हैं, उस मृत्यु को भला सन्त (सत्साधक) आनन्द का कारण क्यों नहीं मानेंगे? ऐसी मृत्यु सातावेदनीय के उदय के समान ज्ञानी पुरुषों के लिए हर्षप्रद ही होती है।॥८॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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