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________________ ॐ मोक्ष के निकट पहुँचाने वाला उपकारी समाधिमरण ॐ ३७९ * जीत होगी। अतः सहनशीलता, धैर्य, क्षमा, सहिष्णुता, प्रतिक्रिया विरति, इन गुणों को धारण करने से सुगति होती है। वेदना से घबराना नहीं, वे सब जाने के लिए आती हैं। इससे भी अनन्त गुणी वेदना नरक और निगोद में भोगी है, फिर भी उसका नाश नहीं हुआ। वेदना के समय ज्ञाता-द्रष्टा बनकर समभावपूर्वक भोग लेने से वह जाती रहती है।' समाधिमरण-साधक का चिन्तन और समाधिभाव की प्रेरणा ___ समाधिमरण का साधक इस प्रकार का चिन्तन करता है मैंने आज तक नाना भव प्राप्त किये। इन भवों में मैंने शुभ संग भी पाये और अशुभ संग भी। मैं इन भवों में राजा भी बना, सेठ भी। माता, पिता, पुत्र, पुरुष, स्त्री, नपुंसक सब बना, देव-भव में भी अनेक वैषयिक सुख प्राप्त किये। तिर्यंच-भव में मैंने पराधीनतावश अनेक दुःख पाये। नरक के भव में भी भयंकर दुःख पाये, यातनाएँ सहीं। अत्यन्त कठिनता से मनुष्य-भव प्राप्त किया। परन्तु मनुष्य-भव में उत्तम कुल, श्रेष्ठ धर्म आदि साधन प्राप्त होने पर भी मैंने अपने जीवन में आत्म-गुणों की आराधना-साधना नहीं की। इस प्रकार मैंने अनादिकाल से भवभ्रमण किया, किन्तु मनुष्य-भव में न तो मैंने जीवन सुधारा और न ही मरण सुधारा। मैंने हर बार असमाधिपूर्वक मृत्यु प्राप्त की। अपनी शुद्ध आत्मा नहीं पहचानी, विषय-कषायों के वश होकर शरीर को ही अपना जाना-माना। मृत्यु के समय अगर मुझे निज-पर का ज्ञान होता कि शरीर विनाशी है, मैं (आत्मा) अविनाशी और चैतन्यमय प्रकाश से ज्योतिस्वरूप हूँ। पर मैंने आत्मा के सम्यग्ज्ञानादि रत्नत्रय को हृदयंगम नहीं किया। यह शरीर रक्त, माँस आदि सप्त धातुमय है। यह शरीर जिस पर मैं मोहित हूँ, कितना घिनौना है ? दुर्गन्धपूर्ण है, देखते ही घृणा होती है। केवल ऊपर से चर्म लपेटा हुआ है, जिससे सुन्दर दिखता है, किन्तु भीतर तो विष्ठा, रक्त, माँस आदि भरे हुए हैं। जो मूर्ख होगा, वही इस पर प्रीति बढ़ाता है। फिर यह शरीर तो जीर्णकुटी के समान है। यह विनष्ट होने वाला है। इस कुटी के बदले में मृत्यु होने पर मुझे नया महल मिलेगा, तब इस पर मोह-ममत्व क्यों रखा जाए? इस शरीर के छूट जाने से क्या हानि है ? समभावपूर्वक अगर शरीर छोडूंगा तो अगले जन्म में शुभ शरीर मिलेगा। अतः मृत्यु का क्या भय है ? मृत्यु तो मित्र है, उपकारी है, जो जीर्ण शरीर लेकर बदले में नया शरीर देता है। श्री आदिनाथ भगवान जैसे उत्तम पुरुष भी जिस देह को नहीं रख सके। फिर हम मन से क्लेश और भय को निकालकर मृत्यु के अवसर पर महोत्सव क्यों न मनाएँ? १. 'समाधिमरण' (गुजराती) से भाव ग्रहण, पृ. २२६ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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