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________________ ३६० ॐ कर्मविज्ञान : भाग ८ निश्चित हैं।” जन्म-मरण का यह ताँता जब तक सर्वकर्ममुक्ति न हो जाए, तब तक लगा रहेगा। “मृत्यु का आगमन निश्चित है ।" " कर्मबद्ध मानव चाहे जितना प्रयत्न कर ले मृत्यु से बच नहीं सकता। काल एक ऐसा जुलाहा है, जो जीवन के ताने के साथ मरण का बाना भी बुनता रहता है। रात और दिन के चक्र की तरह मृत्यु और जन्म का चक्र अबाध गति से चलता है। कोई व्यक्ति धन-बल, तन-वल, सत्ता-वल और जन-वल के आधार पर चाहे कि मैं मृत्यु से बच जाऊँ, यह असम्भव है। “चन्द्रवेध्यक प्रकरण' में कहा है-मृत्यु के समय अश्व-बल, गज-वल, योद्धा-वल, धनुष्य-बल या रथ-बल मनुष्य के लिए कोई आलम्बनरूप नहीं होता ।"२ आयुष्य के कण समाप्त होते ही काल (मृत्यु) अवश्य ही आ धमकेगा। एक पाश्चात्य विचारक ने भी कहा है "Nothing is sure than death." - मृत्यु से बढ़कर सुनिश्चित कुछ भी नहीं है । मृत्यु कब आएगी ? इसका ज्ञान सवको नहीं होता, किन्तु मृत्यु एक दिन अवश्य आएगी, इसमें रत्तीभर भी शंका की गुंजाइश नहीं है। सम्यग्दृष्टि ज्ञानी मृत्यु से घबराते नहीं जो व्यक्ति सांसारिक सुखभोगों में, शारीरिक सुख-सुविधाओं में गले तक डूबे रहते हैं, वे शरीरमोही अद्रष्टा व्यक्ति मृत्यु के बारे में सोचते ही कहाँ हैं ? रात-दिन सौ वर्ष तक जीने का सामान जुटाने में अपनी सारी सुध-बुध खोये हुए हैं । किन्तु सम्यग्दृष्टि ज्ञानवान् व्यक्ति जीवन भी शानदार ढंग से जीते हैं और मृत्यु का वरण भी शानदार ढंग से करते हैं। वे मृत्यु से घबराते नहीं हैं । मृत्यु का भी हँसते-हँसते स्वागत करते हैं। वे अपनी आत्मिक शक्तियों को इस प्रकार तेजस्वी बना लेते हैं कि आत्मा अपने स्वरूप में सोलह कलाओं से निखरने लगती है; वह जब कर्मबन्धनों से मुक्त हो जाती है, तब मृत्यु को भी जीत लेती है, अमर बन जाती है। मृत्यु से भयभीत होने का कारण मृत्यु से भयभीत होने का कारण यह है कि अधिकांश व्यक्तियों का ध्यान जीवन पर तो केन्द्रित रहता है, पर वे मृत्यु के सम्बन्ध में सोचने में कभी दिलचस्पी नहीं लेते। उनका प्रबल पुरुषार्थ जीने के लिए होता है। जीने की महत्त्वाकांक्षा में वे जिंदगीभर उखाड़-पछाड़ करते रहते हैं, पर कभी यह नहीं सोचते कि मौत कभी १. (क) जातएय हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म - मृतस्य च । (ख) नाणागमो मच्चु मुहस्स अस्थि । २. आसबलं हत्थिबलं जोहबलं धणुबलं रहबलं वा । पुरिसस्स मरणकाले न होंति आलंबणं किंचि ॥ Jain Education International -भगवद्गीता - आचारांग, श्रु. १, अ. ४, उ. २ For Personal & Private Use Only - चंदावेज्झयं पँइण्णयं १६९ www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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