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________________ मोक्ष के निकट पहुँचाने वाला उपकारी समाधिमरण ३५९ प्रति आसक्ति एवं ममता के कारण उनके वियोग का बहुत दुःख होता है । परन्तु मृत्यु के सुखद, स्वाभाविक होने के दर्शन को न जानने-समझने के कारण मृत्यु का नाम सुनते ही मूढ़तावश वे रोने-चिल्लाने और विलाप करने लग जाते हैं । मृत्यु का नाम ही सुनना नहीं चाहते । अधिकांश अविवेकी मानव यह जानते - मानते हैं कि मृत्यु बहुत ही भयंकर है। सांसारिक विवेक मृढ़ व्यक्तियों की इसी वृत्ति को देखकर कहा गया कि सात प्रकार के भयों में से " मरण - समं नत्थि भयं । " - मृत्य के समान कोई भय नहीं है। मृत्यु के पीछे जो अच्छाई है, उसे भी समझो परन्तु भगवान महावीर ने मृत्यु के पीछे जो अच्छाई है, उसे ग्रहण किया । जगत् के लोगों को भी उन्होंने यही सन्देश दिया कि “साधक जीने की भी आसक्तिपूर्ण इच्छा न रखे और न ही रोगादि से घबराकर शीघ्र मृत्यु की आकांक्षा करे। वह जीवन और मरण दोनों विकल्पों से मुक्त होकर अनासक्त बनकर रहे।"" भगवान महावीर के जीवन में अनेक मरणान्तक उपसर्ग आए, जिनमें साक्षात् मौत खड़ी थी, फिर भी वे मृत्यु से नहीं घबराए, जीवन और मरण में सम रहे।" भगवान महावीर का समवसरण लगा हुआ था। राजा श्रेणिक आदि कई विशिष्ट व्यक्ति उपस्थित थे । उसी समय एक व्यक्ति आया और उसने राजा श्रेणिक से कहा-‘“जीते रहो।” भगवान महावीर से कहा - " मर जाओ ।" यह सुनकर राजा श्रेणिक ने मन ही मन रोषादिष्ट होकर भगवान से पूछा - "भंते ! इस असम्बद्ध प्रलाप का अर्थ क्या है ?" भगवान ने कहा - " वह ठीक ही कह रहा है ।" श्रेणिक ने पूछा - "भंते ! यह कैसे ?" भगवान बोले - " तुम्हें जीना प्रिय लगता है । परन्तु तुमने अभी तक सकाम जीवन नहीं जिया । समाधिमरण के अनुरूप जीवन नहीं जिया । इसलिए यह कह रहा है-समाधिमरण की तैयारी न होने से अभी तुम्हारा जीना ठीक है । मुझे मरने का कहने के पीछे इसका अभिप्राय है कि आप क्यों इस शरीरादि या जन्म-मरण के कारागृह में फँसे हैं? आप जितनी जल्दी इससे छूटेंगे ( मरेंगे) उतनी ही जल्दी आपकी मुक्ति है।” श्रेणिक नृप के मन का समाधान हो गया । २ मृत्यु का आगमन निश्चित है यह तो सबका अनुभव है कि मृत्यु एक न एक दिन अवश्य ही आएगी। 'भगवद्गीता' में भी कहा है- " जो जन्मा है, उसकी मृत्यु निश्चित है और जो मरता है, उसका पुनः जन्म ( जब तक समस्त कर्म नष्ट न हो जाएँ तब तक ) भी १. जीवियं नाभिकंखेज्जा, मरणं नाभिपत्थए । दुहओ विन सज्जिज्जा, जीविए मरणे तहा ॥ - आचारांग, श्रु. १, अ. ८, उ. ८, सू. ४ २. 'जैनधर्म: अर्हत् और अर्हताएँ ' ( आचार्य महाप्रज्ञ) से भाव ग्रहण, पृ. ७८ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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