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________________ मोक्ष-सिद्धि के साधन : पंचविध आचार ॐ ३३७ 8 अन्तर्निहित है, उसे पाने के लिए अथवा उसे जाग्रत करने के लिए करनी चाहिए। इसीलिए कहा गया-तन, मन, बुद्धि और इन्द्रियों के कारण ज्ञानादि साधना में जो विकृतियाँ आती हैं, जो इहलौकिक, पारलौकिक, सुखैषणाएँ, भोगलालसाएँ आती हैं, उनको साथ में रखकर पंचाचार की साधना मत कर अथवा पंचाचार-साधना को तोलने के लिए तराजू के दूसरे पलड़े पर पारिवारिक साम्प्रदायिक, जातीय आसक्तियाँ, मानवलोक-स्वर्गलोक के सुख, धनवैभव, यशकीर्ति, प्रतिष्ठा-प्रशंसा आदि के बाँट न रखो। तात्पर्य यह है कि पंचाचार-साधना को तोलने के लिए जीवन की पवित्रता, निश्छलता, सरलता, निर्मलता तथा राग-द्वेषरहितता या राग-द्वेष-कषाय-मन्दता ही होनी चाहिए। तभी वह निष्कलंक, निश्छिद्र एवं निर्दोष आचार हो सकेगा। ऐसे सम्यक्आचार की क्या आवश्यकता है ? क्या महत्त्व है ? पौर्वात्य और पाश्चात्य सभी धर्मों-सम्प्रदायों एवं मजहबों ने अपने-अपने ढंग से आचार को विशेष महत्त्व दिया है। वस्तुतः व्यावहारि दृष्टि से आचार (सदाचार) व्यक्ति, समाज और राष्ट्र के अभ्युदय का मूलाधार है। समाज और देश की उन्नति और अवनति का मूल कारण सम्यक्आचार और अनाचार है। भगवान महावीर ने द्वादश अंगशास्त्रों का सार आचार को बताया है। आचार्य वेदव्यास, मनु आदि विज्ञों ने स्पष्ट कहा-“आचारः प्रथमो धर्मः।" भक्तिमार्गी आचार्यों ने भी कहा-“आचार-प्रभवो धर्मः।"-धर्म का प्रभव = प्रादुर्भाव या उत्पत्ति या प्रथम प्रकाश-स्थान ‘आचार' है। इसी तथ्य की पुष्टि की है, व्याकरणाचार्य पाणिनि ने। कहना होगा कि आचार = सर्वदोषरहित सम्यक्आचार शुद्ध धर्म का मेरुदण्ड है। आत्मा के द्वारा सर्वकर्ममुक्ति के मूल मार्गरूप रलत्रयरूप मोक्षमार्ग के या सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप धर्म के अभ्यास का मुख्य अंग है। 'मनुस्मृति' में आचार-पालन की उपलब्धि बताते हुए कहा गया-"(सत्) आचार से दीर्घायु प्राप्त होती है, सदाचार से श्री, धी, कीर्ति इहलोक-परलोक दोनों में प्राप्त होती है। अन्य वैदिक ऋषियों ने कहा-“सदाचार से विद्या प्राप्त होती है।" 'महाभारत' में भी आचार की महिमा बताते हुए कहा है-"सदाचार से धर्म सफल होता है, आचार से धर्म और धन, श्री और धी दोनों प्राप्त होती हैं।" एक ऋषि ने तो आचार से १. साधना के मूलमंत्र (उपाध्याय अमर मुनि) से भावांश ग्रहण, पृ, २0१ २. (क) 'जैन आचार : सिद्धान्त और स्वरूप' (आचार्य देवेन्द्र मुनि) से भाव'ग्रहण, पृ. ३ (ख) अंगाण किं सारो? आयारो। -आ. नियुक्ति, गा. १६ (ग) महाभारत १३/१४९; मनुस्मृति १/२०७ (घ) सवगिमानामाचारः प्रथमं परिकल्प्यते। .. (ङ) हरिभक्तिविलास ३/१0 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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